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अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च)



अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च ):

             उन्होंने बदली है यह दुनिया 
                 वे इसे और बदलेगी!..
                                                 - ममता
                                                 

         वह ऐतिहासिक दिन था! लेकिन हर दिन की तरह एक दिन में नहीं आया था. इस दिन के लिए न जाने कितने दिन संघर्ष हुआ था. एक समय जिस स्त्री को खरीदने-बेचने की वस्तु उसी तरह समझा जाता था जैसे गुलामों को, जानवरों को...जिसके स्त्रीत्व का खरीदारों के लिए कोई 
मायने नहीं था, जिसकी आहें, आंसू और असह्य पीड़ा मालिकों के लिए सिर्फ़ उपहास की वस्तु थी, उस स्त्री ने आज के दिन मनुष्य के रूप में जीने का अधिकार हासिल किया था. इसलिए रोज के दिनों की तरह निकलने वाला आज का सूरज कुछ ज़्यादा ही सुन्दर, कुछ ज़्यादा ही लाल था. यद्यपि अनेक संघर्षों के परिणाम-स्वरुप 19वीं सदी के अंत तक न्यूज़ीलैंड और आस्ट्रेलियाई उपनिवेशों के कुछ देशों में महिलाओं को मताधिकार मिल गया था, पर पूरी दुनिया की महिलाओं के लिए इसके कोई मायने नहीं थे. और संघर्ष हुए तो 1939 तक दुनिया के 28 देशों में महिलाओं को मताधिकार मिला. किन्तु केवल इस मताधिकार से ज़्यादा कुछ हासिल नहीं हुआ होता यदि महिला मजदूरों ने मजदूरी एवं अन्य सुविधाएं बढ़ाने और पुरुषों के साथ बराबरी के अधिकार का मौलिक एवं मानवीय सवाल खड़ा न किया होता.
       8 मार्च, 1857 के दिन अमेरिका के कपड़ा कारखाना की महिलाओं ने आधुनिक इतिहास में पहली बार  मिल मालिकों के समक्ष एक संगठित और जुझारू आन्दोलन खड़ा किया. काम के घंटे 16 से 10 करने की मुख्य मांग का यह आन्दोलन आज इसलिए और महत्त्वपूर्ण हो गया है कि आज फिर कम्पनी मालिकानों ने काम के घंटे के अधिकारों को बेमानी सिद्ध करना शुरू कर दिया है. दरअसल, महिला मजदूरों की यह मांग सही रूप में रूस की फरवरी, 1917 की क्रान्ति के बाद ही प्रतिफलित हो पाई जब न केवल काम के घंटे कम किए गए बल्कि उनकी हर सुविधा का ख्याल रखा गया.  यही नहीं, कारखानों के प्रबंधन में बिना लैंगिक भेदभाव के उनकी भूमिका को पूरा महत्त्व दिया गया.
      तब से न केवल महिलाओं की आवाज़ को दबाने की हर कोशिश के खिलाफ संघर्ष हुए बल्कि इन संघर्षों में महिलाओं ने कई जीतें भी हासिल की. यद्यपि इस बीच प्रतिक्रियावादी ताकतों का पुनः उभार होने से उनके ऊपर, विशेषकर पिछड़े और विकासशील देशों में नए सिरे से हमले होने शुरू हुए हैं और कठमुल्लावादी उन्हें उसी तरह गुलाम बनाए रखने के लिए लगातार दबाव बना रहे हैं किन्तु इसके खिलाफ प्रतिरोध भी और तीखा हो रहा है. इस बीच हमारे जैसे विकासशील देशों की महिलाओं को तथाकथित वैश्वीकरण की मार के चलते न केवल काम से हाथ धोना पड़ रहा है बल्कि महिला मजदूरों की मजदूरी में भी इजाफ़ा होने के बजाय कमी हो रही है. शिक्षित महिलाओं के नौकरी पाने के सपने टूट रहे हैं और उन्हें फिर केवल चूल्हा-चौका की दुनिया में ढकेला जा रहा है. कम्पनियों में कामगार स्त्रियों को रात में भी काम करने अथवा नौकरी छोड़ने के दबाव बनाए जा रहे हैं. प्राथमिक स्तर पर पढ़ाने वाली महिलाओं को जबरन दूर-दराज़ के इलाकों में भेजा जा रहा है तथा उनके सर पर अध्यापन के अतिरिक्त अनेक तरह काम लादे जा रहे हैं.
                           साभार: स्त्री मुक्ति लीग (फ़ेसबुक)      
          
आज हमारे देश में महिलाओं को हिंसा का जिस तरह शिकार बनाया जा रहा है, वह ‘विकास’ के सारे दावों पर तमाचे की तरह है. भ्रूण-हत्याएं तो जारी हैं ही, बलात्कार का शिकार होने वाली महिलाओं में शिक्षित-अशिक्षित सभी हैं. ‘पढ़ी-लिखी लड़की, रौशनी घर की’ के नारे विद्यालयों की दीवारों तक सीमित होते जा रहे हैं. सार्वजनिक/पंचायती विद्यालयों को निजी हाथों में सौंपने की मुहिम और लगातार की जा रही फ़ीस में बढ़ोत्तरी धीरे-धीरे गरीब घर की लड़कियों से पढ़ाई-लिखाई छीनने लगी है. साम्प्रदायिक और जातिवादी उन्मादों के बढ़ने से सबसे ज़्यादा स्त्रियाँ ही असुरक्षित हो रही हैं. मतलब, फिर से कम से कम समाज के निचले तबके को सौ साल पीछे ढकेलने की कोशिश हो रही है. ज़ाहिर है, समय कभी पीछे नहीं लौटता तो इन समस्त प्रतिक्रियावादी-अधोगामी ताकतों के खिलाफ संघर्ष करना ही होगा.



         महिलाओं द्वारा किया गया अब तक का संघर्ष और  इन संघर्षों से हासिल की गई जीतें यही अहसास, यही भरोसा दिलाती हैं कि निश्चित ही वे इस दुनिया को पीछे नहीं जाने देंगी. वे आगे बढेंगी, पुरुष को भी उसका सहयोगी होना ही पड़ेगा!..हमारे देश में चल रहे अभूतपूर्व किसान आंदोलन में महिलाओं द्वारा की जा रही बढ़चढ़कर भागीदारी भी यही अहसास दिला रही है कि न केवल यह संघर्ष जमीनी सवालों को उठ रहा है बल्कि यह भुक्तभोगियों का आंदोलन है। महिलाओं से बेहतर कौन जान सकता है कि मनुष्य के लिए क्या अच्छा है क्या बुरा? किसान आंदोलन में चाहे ट्रैक्टर रैली हो चाहे लंगर की व्यवस्था महिलाएँ पुरुषों की बेहतर सहयोगी सिद्ध हुई हैं।
                                ★★★★★
 

 


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