इन्हें बचाओ!...
~ अशोक प्रकाश
ये दोनों सच्ची घटनाएं हैं!...आपके आसपास भी घटती होंगी। किन्तु ये आकस्मिक घटनाएं नहीं हैं। ये उस समाज की सच्चाइयाँ हैं जिसके रचयिता भी हम हैं, भोक्ता भी हम हैं। ऐसी व्यवस्था बनाने या बनाए रखने में हमारा भी योगदान है!...
पहली घटना एक लड़की की है! इस लड़की की उम्र होगी 18-20 साल। कुुुछ दिन पहले खबर थी कि इसका अपहरण हो गया है। माँ-बाप के साथ सब चिंतित थे। नाते-रिस्तेेेदार, अड़ोसी-पड़ोसी, दोस्त-यार!...क्या हुआ? अभी भी कोई ज़्यादा नहीं जानता! पहले पता चला कि इस शहर से बाहर एक उत्तरी शहर में उसकी लोकेशन मिल रही. उधर कोई इसके रिश्तेदार रहते हैं. लोग गए तो पता लगा कि वह इधर तो नहीं आई. वहां भी और लोगों से जानकारी की कोशिश की गई. थक-हारकर माँ-बाप-पुलिस सब वापस आ गए. दोस्तों-सहेलियों सब पर शक-संदेह का कोई फायदा नहीं हुआ. एक हफ़्ते बाद अकस्मात थाने से उसकी खबर आई!... क्या?...आपकी सारी कल्पनाएँ-आशंकाएं सही हो सकती हैं. अगर ये कहानी होती तो उनमें से कोई भी घटना इसके आगे के चित्रण का हिस्सा होती। पर यह कहानी नहीं है। बहरहाल, लड़की सुरक्षित है. एक हफ्ते बाद फिर अपने घर में है. आगे इसके बारे में क्या लिखें?...तमाम तर्कों से यह सिद्ध किया जा सकता है कि इसमें कौन सी बुरी-भली बात है। लड़की बालिग है...कहीं भी आ-जा सकती है। शायद यह सोच लड़की की भी हो। इस निर्भया-सोच में कोई बुराई भी नहीं है!... फिर क्यों अख़बार भरे पड़े रहते हैं बलात्कारों, हत्याओं और आत्म हत्याओं से? क्या ऐसी व्यवस्था और सोच हम विकसित कर पाए हैं कि लड़कियां कहीं भी जाएं, कुछ भी करें और सकुशल अपने घर या आश्रयस्थल आ जाएं?...क्या भारतीय-पौरुष इस क़ाबिल बन गया है?...क्या लड़कियों को बहला-फुसलाकर या प्रेमजाल में फंसाकर यह समाज उन्हें सुरक्षित रहने देता है?...
दूसरी घटना, बिना किसी कहानी के- एक लड़के की है। उसकी उम्र भी वही है। एक-दो साल आगे-पीछे का कोई मतलब नहीं। आप और अन्य तमाम लोग दोनों को एक साथ जोड़कर निष्कर्ष निकाल रहे होंगे। आपका निष्कर्ष सही भी हो सकता है!...पर गलत नहीं हो सकता क्या? आप इस बात से भी सहमत होंगे कि इस सम्बन्ध में किसी भी तरह के बने-बनाए निष्कर्ष गलत-सही कुछ भी हो सकते हैं। फिलहाल, बस इतना ही कि लड़का स्नातक-परीक्षा में नहीं बैठा। वह अपने घर में तो नहीं रहता पर घर वालों से ज़्यादा दूर भी नहीं है। पास के शहर में पढ़ाई-लिखाई की बेहतर सुविधा देख माँ ने बाप से झगड़ के उसे शहर में रहने का कमरा दिलवाया। अपनी सारी जरूरतों में कटौती कर उसे नियमित रुपये-पैसे दिये। वह भी अभी भी यही भरोसा दिलाता है कि इम्तहान छूटने में उसकी कोई गलती नहीं। विश्वविद्यालय द्वारा बिना निश्चित सूचना के परीक्षाएं शुरू कराने से वह एक विषय के दोनों प्रश्नपत्रों में नहीं बैठ सका। माँ-बाप क्या कह-कर सकते हैं?...आप भी कुछ नहीं कर सकते। लड़का इम्तहान पूरा होने के पहले ही फेल हो चुका है। पर अभी चूंकि शहर का किराए का कमरा नहीं छोड़ सकता, इसलिए माँ-बाप को सब ठीक कर लेने का दिलासा दिलाता फिर रहा है।
सुना गया है कि कुछ लड़कियों से उसकी गहरी दोस्ती है। कुछ लड़कों से भी। यह कि सब मिलकर न जाने कहाँ-कहाँ जाते हैं। होटलों में ठहरते हैं। उनमें से कुछ ऐसे भी काम करते हैं जो कानूनी तौर पर अपराध हैं। पर कभी मसला फंसा तो ले-दे कर सब ठीक कर लेते हैं।...
आपकी तरह मुझे भी नहीं मालूम कि दोनों घटनाओं के बीच कोई सम्बन्ध है कि नहीं। पर दोनों वास्तविक हैं। अब इन दोनों का क्या होगा? इस तरह के औरों का क्या होगा?...ख़ास तौर पर इस लड़की का या अन्य लड़कियों का?...कहीं देह की मंडियों में तो नहीं पहुंचा दी जाएंगी?..आपकी ही तरह मैं भी सिर्फ कल्पनाएँ-आशंकाएं ही कर सकता हूँ। बहुत से लोग ‘कुछ नहीं’ होने के लिए भी आश्वस्त हो सकते हैं। पर इन दोनों के साथ जो घटा, वह नहीं घटा होता तो अच्छा होता कि नहीं- इस बारे में ज़्यादा मत-भिन्नता की गुंजाइश नहीं है।
मेरा इन दोनों के बारे में यही निष्कर्ष है कि दोनों ने बहुत कम उम्र में अनजाने ही अपनी ज़िन्दगी में बहुत कुछ खो दिया है। आंकड़े मिल जाएंगे कि इसके बाद कितनों के साथ क्या-क्या हुआ। इन दोनों को बचाने और इनका भविष्य बेहतर कैसे बनेगा, इस विषय पर सोचिए। चिंतित होइए. इन्हें बचाइए!...
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