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तंत्रलोक की माया...



                                   तन्त्रलोक की माया...

इस दुनिया से शिकायतें बहुत हैं!...इस दुनिया की शिकायतें बहुत हैं!....

-क्यों न हों? शिकायतों के बिना कभी बढ़ी है दुनिया क्या? कौन राजा चाहता था कि उससे उसका मुकुट छिने? लेकिन लोकतंत्र आया न!...दुनिया बदली न!

-कितना बदली दुनिया?...कहाँ बदली दुनिया? जहां देखो, सब उल्टा-पुल्टा! बिना घूस के, बिना जी-हुजूरी के कोई काम नहीं होता! राजाओं के नाम बदल गए...चेहरे बदल गए पर राजा नहीं बदले! अब तो हर कोई राजा ही बनना चाहता है. करना-धरना कुछ न पड़े, लेकिन चांदी कटती रहे! पहले पुश्त-दर-पुश्त राजा होते थे, एक-दो परिवार राज करते थे, अब हर कोई यही चाहता है. बात तो फिर वहीँ की वहीँ रही!...

-नहीं, ऐसा नहीं है! बात वहीँ की वहीँ नहीं है. अब राजतंत्र नहीं, लोकतंत्र है. जनता ही अपना राजा चुनती है..

.-वही तो! ‘राजा’ ही चुनती है, खुद राजा थोड़े होती है! खुद तो कीड़े-मकोड़ों की तरह ज़िन्दगी जीती है. एक दिन इच्छा हुई तो वोट दे आए बस, लो हो गया लोकतंत्र!...खेत-बाड़ी, रोज़गार-धंधे सब चौपट! कोई किसी की सुनता नहीं. अधिकारी सीधे मुंह बात नहीं करते , नेताओं के पास जाओ तो और मुसीबत! चक्कर लगाते रहो, जिंदाबाद-मुर्दाबाद करते रहो! छोटे से काम के लिए दसियों दिन दौड़ना, बर्बाद करना!...फिर भी पछतावा! क्यों आए इसके पास?...

-तो भाई, बैठे-ठाले तो कोई काम होता नहीं. हाथ-पैर तो डोलाना ही पड़ेगा. इतना तो राजाओं को भी करना पड़ता था!...

-...तो हम तुमको राजा लग रहे हैं? चार दिन से तुम्हारे पीछे दौड़ रहे हैं, दरोगाजी से मिला दो.  माधो अभी खेत का मेड़ काटा है, लेकिन कह रहा है कि ई तुम्हारी आधी जमीन हमारी है. अब सुनो, आधी जमीन चली गई तो क्या हम घुइंयाँ छीलेंगे? बाल-बच्चों को रोटी कहाँ से खिलाएंगे?...वही एक बीघा जमीन तो पेट भरने का आसरा है!...

-अरे नाराज न होओ चौधरी, कुछ इंतजाम कर लो! कहा था दारोगा पांच सौ से कम में खड़े भी नहीं होने देगा...बात करने की तो पूछो ही नहीं!...

-तब तुम्हारी नेतागीरी और हमारी रिश्तेदारी का क्या फ़ायदा?...

-समझो चौधरी, समझो! सब तन्त्रलोक की माया है!...काम कराना है तो लोकतंत्र को उलट के समझो!... ★★★

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