Skip to main content

संकीर्णताओं का चुनाव


                             संकीर्णताओं का चुनाव

          हाल ही में हमारे देश में कुछ राज्यों की विधानसभाओं और कुछ संसद सदस्यों की खाली हुई सीटों के चुनाव संपन्न हुए। इन चुनावों की कुछ विशेषताओं को समझने की जरूरत है। इनमें भारतीय लोकतंत्र में जगह बनाते कुछ ऐसे तत्त्वों को समझना जरूरी है जो आगे चलकर ऐसी स्थाई प्रवृत्ति के रूप में स्थापित हो सकते हैं जो पूरी चुनाव प्रणाली को जनता का मखौल बनाने की कवायद न सिद्ध कर दें! वैसे भी चुनाव जीतने वाले दल और व्यक्ति जब जनता के जीवन में कोई बदलाव लाने की जगह अपने लिए सुविधाएं बढाने लगें तो स्वाभाविक तौर पर जनता में निराशा घेरती है। लेकिन अगर चुनावों के मुद्दों से लेकर चुनाव-प्रणाली तक पर चुनावों के बाद तीखे सवाल उठें तो समझना चाहिए कि कुछ विशेष गड़बड़ है। 
        मसलन, त्रिपुरा में चुनाव के बाद मार्क्सवाद की प्रतीक स्वरूप लेनिन की मूर्ति तोड़ा जाना है। प्रश्न उठता है कि इससे किसी को क्या हासिल हुआ?...क्या यह इस बात का संकेत है कि आगे चुनाव में जो समूह जीते दूसरे समूह की विचारधारा या महत्त्व की प्रतीक मूर्तियों को तोड़ डाले?.... तालिबानों, तथाकथित मूर्तिपूजा विरोधियों और युद्धप्रिय मुनाफ़ा-लोभियों के कारनामों को ही अगर एक प्रवृत्ति के रूप में विकसित किया जाएगा तो यह एक ऐसे युग की शुरुआत होगी जिसमें जीत तो किसी की नहीं होगी, पर हारेंगे सब। खासतौर पर जनता के लिए यह एक अत्यंत अशुभ संकेत है! अशुभ इसलिए ज़्यादा कि इससे उसके जीवन की जद्दोजहद के असली सवाल बिलकुल पीछे छूट जाएंगे। वह अपने ही जीवन की तबाही पर मूक दर्शक बनेगी या ताली बजाती हुई दिखेगी। हो सकता है कि शासक वर्गों द्वारा यह कोई सुनियोजित नीति विकसित की जा रही हो जिससे वे सत्ता पर अपनी पकड़ ज़्यादा लम्बे समय तक बनाए रख सकें, पर आम लोगों के दुर्दिन भी इससे और भी ज़्यादा लम्बे और भयानक होंगे, यह भी तय है। इससे उन संकीर्णताओं को जड़ जमाने और जनता के जीवन पर मूंग दलने का मौका मिलेगा जिनसे लड़कर पिछली सदी में कुछ हद तक उसने अपना जीवन बेहतर बनाया था। यह पीछे लौटने जैसा या उससे भी भयंकर युग की शुरुआत जैसी होगी।

           इन चुनावों में एक अन्य संकीर्णता की जड़ों को खाद-पानी देने का काम किया गया जिससे राजनीतिक दलों की रही-सही विचारधारा का ख़ात्मा और किसी भी स्तर तक गिर कर चुनाव जीत लेने की प्रवृत्ति का पता चलता है। यह इन राजनीतिक दलों की छद्मनीति के बेनक़ाब हो जाने के रूप में भी देखा जा सकता है किंतु हक़ीक़त में यह राजनीति से विचाधारा नाम की चीज को सरेआम कूड़ेदान में डाल देना है। इसकी मार भी अन्ततः जनता को ही झेलनी है।               साम्प्रदायिकता, जातिवाद, परिवारवाद के आगे राजनीतिक-दल नामधारी कुछ समूहों का उभार और सत्ता पर कब्ज़ा करने से जनता की लूट और बढ़ेगी। पूर्वोत्तर में तमाम अवसरवादी तत्त्वों को इकट्ठा कर भाजपा की कुछ वोटों या सीटों की बढ़त हो या गोरखपुर-फूलपुर में सपा की, दोनों जगह 'कांटे की टक्कर' में असल में जनता के जीवन में ही और कांटे बोये गए हैं!...★★★

Comments

Popular posts from this blog

ये अमीर, वो गरीब!

          नागपुर जंक्शन!..  यह दृश्य नागपुर जंक्शन के बाहरी क्षेत्र का है! दो व्यक्ति खुले आसमान के नीचे सो रहे हैं। दोनों की स्थिति यहाँ एक जैसी दिख रही है- मनुष्य की आदिम स्थिति! यह स्थान यानी नागपुर आरएसएस- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजधानी या कहिए हेड क्वार्टर है!..यह डॉ भीमराव आंबेडकर की दीक्षाभूमि भी है। अम्बेडकरवादियों की प्रेरणा-भूमि!  दो विचारधाराओं, दो तरह के संघर्षों की प्रयोग-दीक्षा का चर्चित स्थान!..एक विचारधारा पूँजीपतियों का पक्षपोषण करती है तो दूसरी समतामूलक समाज का पक्षपोषण करती है। यहाँ दो व्यक्तियों को एक स्थान पर एक जैसा बन जाने का दृश्य कुछ विचित्र लगता है। दोनों का शरीर बहुत कुछ अलग लगता है। कपड़े-लत्ते अलग, रहन-सहन का ढंग अलग। इन दोनों को आज़ादी के बाद से किसने कितना अलग बनाया, आपके विचारने के लिए है। कैसे एक अमीर बना और कैसे दूसरा गरीब, यह सोचना भी चाहिए आपको। यहाँ यह भी सोचने की बात है कि अमीर वर्ग, एक पूँजीवादी विचारधारा दूसरे गरीबवर्ग, शोषित की मेहनत को अपने मुनाफ़े के लिए इस्तेमाल करती है तो भी अन्ततः उसे क्या हासिल होता है?.....

नाथ-सम्प्रदाय और गुरु गोरखनाथ का साहित्य

स्नातक हिंदी प्रथम वर्ष प्रथम सत्र परीक्षा की तैयारी नाथ सम्प्रदाय   गोरखनाथ         हिंदी साहित्य में नाथ सम्प्रदाय और             गोरखनाथ  का योगदान                                                     चित्र साभार: exoticindiaart.com 'ग्यान सरीखा गुरु न मिल्या...' (ज्ञान के समान कोई और गुरु नहीं मिलता...)                                  -- गोरखनाथ नाथ साहित्य को प्रायः आदिकालीन  हिन्दी साहित्य  की पूर्व-पीठिका के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।  रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य के प्रारंभिक काल को 'आदिकाल' की अपेक्षा 'वीरगाथा काल' कहना कदाचित इसीलिए उचित समझा क्योंकि वे सिद्धों-नाथों की रचनाओं को 'साम्प्रदायिक' रचनाएं समझत...

अवधी-कविता: पाती लिखा...

                                स्वस्ती सिरी जोग उपमा...                                         पाती लिखा...                                            - आद्या प्रसाद 'उन्मत्त' श्री पत्री लिखा इहाँ से जेठू रामलाल ननघुट्टू कै, अब्दुल बेहना गंगा पासी, चनिका कहार झिरकुट्टू कै। सब जन कै पहुँचै राम राम, तोहरी माई कै असिरबाद, छोटकउना 'दादा' कहइ लाग, बड़कवा करै दिन भै इयाद। सब इहाँ कुसल मंगल बाटै, हम तोहरिन कुसल मनाई थै, तुलसी मइया के चउरा पै, सँझवाती रोज जराई थै। आगे कै मालूम होइ हाल, सब जने गाँव घर खुसी अहैं, घेर्राऊ छुट्टी आइ अहैं, तोहरिन खातिर सब दुखी अहैं। गइया धनाइ गै जगतू कै, बड़कई भैंसि तलियानि अहै। बछिया मरि गै खुरपका रहा, ओसर भुवरई बियानि अहै। कइसे पठई नाही तौ, नैनू से...