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इनकी नहीं है होली!...


           बेरोजगारों का धरना और सरकारी कान में रुई 
                                                     - नितिन  ठाकुर 

            यूपी- बिहार के निचले और मध्यमवर्ग के लिए एसएससी क्या मायने रखता है बताने की ज़रूरत नहीं है, लेकिन शायद साइरन वाली सरकारी कारों में बैठनेवाले मंत्री और नौकरशाह बहरे हो चुके हैं. चार दिन से दिल्ली में धरने पर बैठे सैकड़ों परीक्षार्थी होली के दिन भी देश की भारी बहुमत वाली सरकार से गुहार लगाते रहे पर गृहमंत्री होली पर ढोल बजाने में मस्त दिखे और बाकी मंत्री फाग गा रहे थे. अद्भुत नज़ारा है लोकतंत्र का. जनता सड़कों पर अपने भविष्य को बचाने के लिए त्यौहार पर भी प्रदर्शन करे और मंत्री अपने सुरक्षित सरकारी बंगलों में रंग उड़ाएं. एसएससी का पर्चा सोशल मीडिया पर तैर रहा था. दुनिया उसे देख रही थी मगर अफसर बाबू सबूत पूछ रहे हैं. इस देश में पर्चा लीक होना भला कितनी हैरत की बात रह गई है बाबू जी?? अपने कोटर से बाहर आइए और मेरे ही साथ चलिए. आपको लाखों ऐसे लोगों से मिलवा दें जो हर परीक्षा का पर्चा लीक करने का दावा करते हैं और हर साल खूब रकम बनाते हैं. इस धंधे में सालों से अगर बस झूठ ही होता तो अब तक ठप्प हो चुका होता मगर कुछ तो है कि खुलकर खेल ना करने के बावजूद रैकेट्स के वारे न्यारे हैं. अगर एसएससी वाले सीबीआई जांच की मांग कर रहे हैं तो आदेश करने में तुम्हारा क्या जाता है? विपक्षियों के पीछे पूरी की पूरी एजेंसी लगाने का क्या तुक है? इनकम टैक्स और ईडी को अपनी खुन्नसें पूरी करने में लगाए रहिए मगर इन बेचारों के शोर मचाकर गले फट गए हैं अब कुछ तो रहम कीजिए. कल टीवी पर प्रदर्शनकारियों में से एक लड़का मीडिया से बात करते हुए फफक पड़ा. किसी तरह अपना वाक्य पूरा कर सका कि सर हम यहां पर पड़े हैं लेकिन हमारी कोई सुननेवाला नहीं है. बताइए हम क्या करें... 

                मैं उसका अहसास समझ पा रहा था. जब तक हम निजी तौर पर सरकारी बेरुखी का सामना नहीं करते हमें सरकारों के वो पहलू देखने में बड़ा आनंद आता है जैसा वो दिखाती हैं पर जब किसी सरकार की निर्दयता निजी त्रासदी की वजह बनती है तो हम ऐसे ही फफक कर रोते हैं. पहले यूपीएससी वालों का आंदोलन..  फिर यूजीसी वालों पर डंडों का बरसना और अब एसएससी परीक्षार्थियों को अनसुना करना. प्राइवेट नौकरियां आपके पास देने को हैं नहीं. अनोखे आर्थिक "सुधारों" की भेंट छोटे धंधों को चढ़ाकर मामूली नौकरियों की गुंजाइश भी आपने खत्म कर ही दी है. सरकारी पदों पर भर्तियों की हालत देश को पहले से पता है. इस बार तो यूपीएससी तक की रिक्तियों में भारी कमी से दिल्ली के मुखर्जीनगर से लेकर इलाहाबाद-पटना तक खलबली है. ट्रंप ने कल कह ही दिया है कि हम भी अब भारत के माल पर ज़्यादा टैक्स लगाकर बदला लेंगे तो ज़ाहिर है उत्पादन के गिरने का असर कंपनियों और फिर कर्मचारियों पर देखने को मिलेगा. 

                आपके पास नए राज्यों में सरकार बनाने के अलावा इस मामले में क्या रणनीति है? अगर किसी दैवीय संयोग से देश में कहीं छह महीने कोई सांप्रदायिक घटना ना हो, विवादित राजनीतिक बयानबाज़ी ना हो, कोई बड़ा हत्याकांड ना हो तो यकीन मानिए सत्ता में बैठे बहरों को जनता ही खींचकर गद्दी से उतार देगी. अब सोचिए कि इनके पास सत्ता में बैठे रहने की वैधता तो है मगर नैतिक अधिकार नहीं और ये हाल केंद्र की नहीं राज्य की सरकारों का भी है. यूपी की योगी सरकार हो या पहले अखिलेश सरकार हो या उससे पहले की माया सरकार हर किसी के राज में यूपीपीसीएस की बदहाली आम रही. इसे तो मैंने ही खूब करीब से देखा.  चार-चार साल पुराने एक्ज़ाम्स के रिजल्ट फंसे पड़े हैं. गरीब बाप का बेटा शहर में आधा दर्जन दोस्तों के साथ कमरा शेयर करके कच्चा-पक्का भात पेट में डालकर पेपर दिए जा रहा है. बेचारे को खबर ही नहीं कि चार साल पहले जो एक्ज़ाम दिया था उसमें वो कामयाब रहा या नाकामयाब रहा. बस बाद में भी जो एक्ज़ाम हाथ लगा उसे दिए जा रहा है. उधर बाप पेट काटकर पैसे भेज रहा है कि बेटे को कहीं सरकारी नौकरी मिल जाए तो किसी तरह उसका भविष्य बन जाए. ज़्यादा दिन नहीं हुए जब यूपी के दो अलग अलग ज़िलों से आई खबर मैंने ही लिखी कि कैसे बेटे ने अपने बाप की इसलिए हत्या कर डाली ताकि अनुकंपा के आधार पर पिता की सरकारी नौकरी उसे मिल जाए. दोनों ही मामलों में आरोपी बेटे मेहनत करके थक चुके थे और बाद में सामाजिक पतन के इस रास्ते पर चल निकले. ये हमारे देश में नौकरी और उससे बढ़कर सरकारी नौकरी की अहमियत है. अगर हौसला इतना ही पढ़कर टूटने लगा है तो तब क्या होगा जब व्यापमं की अब तक जारी कहानी फिर सुनाऊंगा?  आप लोग पार्टियों की झूठी-सच्ची राजनीतिक हार-जीत पर बाद में ध्यान दीजिएगा पहले अपने लिए नौकरी मांगिए. पीएम के पकौड़े बनाने टाइप रोज़गार की शेखचिल्ली योजनाओं का शिकार मत बनिए. पहले हर साल करोड़ों नौकरी देने का सपना बेचना और फिर कह देना कि आंत्रप्रेन्योर बनो सिर्फ धूर्तता है. आंत्रप्रेन्योरशिप का स्कोप भी कितना छोड़ा है उसकी कहानी और ज़्यादा फ्रस्ट्रेट करती है. किसी दिन उस पर लिखा जाएगा तो पीड़ितों के नाम से लिखूंगा जिनके दर्जन भर बार आवेदन करने के बाद भी सरकार पूंजी देने को तैयार नहीं. 

                 अगले पांच-दस साल के भीतर बैंकों में नौकरियां घटने वाली हैं. पश्चिम की संरक्षणवादी सरकारें आप लोगों की कॉल सेंटर जॉब्स तो छीनेंगी ही, हमारे मेड इन इंडिया वाले माल पर टैक्स थोपकर बाज़ार को मंदा कर देंगी. लोगों के पास पैसा ना हुआ तो बाज़ार में खर्चा करने की उनकी ताकत कम होने का असर व्यापार पर दिखेगा ही. व्यापार करनेवालों का मुनाफा कम होगा तो इस देश का प्राइवेट सेक्टर वैसे ही भरभराकर गिरेगा जैसा पश्चिम में दिखता रहा. अब तो वैसे भी आप अलग टैरेटिरी नहीं रह गए हैं. सरकारों ने आपके धंधे ऐसे केंद्रीकृत किए हैं कि बाज़ार बाहर गिरेंगे और माल आपका सड़ेगा.  
                तो श्रीमानजी, अगर कोई भी सरकारी या सरकारछाप अर्थशास्त्री आपको नौकरी के मामले में अच्छे दिन दिखा रहा हो तो उसे तुरंत दिल्ली लाकर चिलचिलाती धूप में नारे लगाते छात्रों के बीच बैठा दीजिए. फिर उसके आंकड़ों का तापमान मिल बैठकर मापेंगे. आंकड़ों की बाज़ीगरी से ना ईएमआई चुकती है, ना बच्चे की फीस भरी जाती है, ना पेट भरता है. ■■■

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