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प्रवासी मजदूर और किसान आंदोलन:

किसान आंदोलन   

       क्या प्रवासी मजदूरों के साथ आने से

       और तेज होगा किसान आंदोलन?

 


        हालांकि पिछले साल की अभूतपूर्व और निर्मम प्रवासी मजदूर पलायन की घटना की पुनरावृत्ति शायद ही इस साल हो!...क्योंकि शासकवर्ग भी यह जानता है और प्रवासी मजदूर भी कि ऐसा होना किसी भी प्रकार की अनहोनी घटना को आमंत्रण दे सकता है। यद्यपि पूंजीवाद अपने मुनाफे के लिए किसी भी हद तक क्रूर हो सकता है, पिछली सदी के दो विश्वयुद्ध इसीलिए लड़े गए थे, किन्तु इनके संचालक यह भी समझते हैं कि कोई जरूरी नहीं कि सिक्के का पहलू हमेशा उनकी तरफ ही बना रहे। दो विश्वयुद्धों का परिणाम भी उन्हें अच्छी तरह पता होगा। इन युध्दों के बाद एक समय ऐसा लगने लगा था कि जैसे दुनिया से पूंजीवाद का हमेशा के लिए खात्मा हो जाएगा। इन युध्दों के खिलाफ उठ खड़ी हुई जनता की वैश्विक गोलबंदी का ही परिणाम था लंबे समय से बनाए रखे गए उपनिवेश आज़ाद होने लगे। भले ही औपनिवेशिक शासकों ने स्थानीय शासकों से मिलकर मुनाफे को बनाए रखने के समझौते किए और इसी का परिणाम है कि वैश्विक पूँजीवाद या साम्राज्यवाद आज भी जिंदा है। दुनिया भर की जनता को इन समझौतों के माध्यम से ही पूरी दुनिया के पूँजीपति एकजुट हो पहले से भी ज़्यादा क्रूर हो लूट रहे हैं। बहाना चाहे मंदी का हो या महामारी का उनके द्वारा जनता की चमड़ी से दमड़ी निकालने सिलसिला आज और तेज होता जा रहा है।...

          हमारे देश के प्रवासी मजदूरों की समस्या भी अपने आप नहीं आई। यह पूंजीपतियों की के इसी सिलसिले की एक कड़ी है। कोरोना की पहली लहर के बाद मजदूरों और देश की आम जनता के साथ जो कुछ घटा और घट रहा है, उम्मीद है कि किसान आंदोलन के नेतागण इसे समझते होंगे। दरअसल, ये कृषि सम्बन्धी कानून भी पूंजीपतियों/कम्पनियों द्वारा लूट और तेज करने की प्रक्रिया का ही हिस्सा लगता है। किन्तु जहाँ किसान आंदोलन ने किसानों को संगठित किया है, वहीं प्रवासी मजदूरों का न तो कोई मजबूत संगठन बना, न कम्पनियों ने उनकी उम्मीदों को हमेशा के लिए ख़त्म कर दिया। वे दुबारा उन्हीं शहरों की अमानवीय शर्तों के साथ मजदूरी करने के लिए लौट गए। कम से कम आधे, क्योंकि गाँवों में उनके लिए कुछ खास नहीं रहा है। ऐसे में इस बार जब किस्तों में लाकडाउन शुरू हुआ है तो मजदूरों के पास अमानवीय तरीके से किसी भी हालत में घर जाने की अपेक्षा किसान आंदोलन ने उनके और उनके परिवार को आश्रय और भोजन की व्यवस्था करने का भरोसा दिलाकर उन्हें आंदोलन के पक्ष में खड़े होने का अप्रत्यक्ष आमंत्रण दिया है। यद्यपि यह आह्वान मानवीय संवेदना व सहायता के तौर पर ही किया गया है किंतु सभी जानते हैं कि अधिकांश मजदूर ग्रामीण किसानी परिवेश से ही आते हैं और किसान आंदोलन के प्रति उनकी सहानुभूति होना भी लाज़मी है। इसलिए यह सवाल भविष्य के गर्भ में ही कि यदि बड़ी संख्या में शहरों से विस्थापित किए गए मजदूर किसान आंदोलन से जुड़ जाते हैं तो वे क्या किसान आंदोलन की ढाल बन जाएंगे?..

बहरहाल संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं का कहना है कि 'भीड़ बढ़ाना मकसद नहीं, किसानों की प्रवासी मजदूरों से हमदर्दी है आमंत्रण का कारण', लेकिन मजबूर मजदूरों का किसान आंदोलन के प्रति क्या रुख होगा, यह भविष्य तय करेगा। 

  किसान आंदोलन के नेताओं का कहना है कि प्रवासी मजदूरों के लिए उनका आह्वा दिल्ली बॉर्डर पर प्रदर्शनकारियों की संख्या को बढ़ावा देना नहीं है। वे कह रहे हैं कि गेहूं की कटाई के लिए गए किसान हजारों की तादाद में उत्साहपूर्वक वापस आ रहे हैं। प्रवासी मजदूरो की अपनी एजेंसी है जिसे सरकार हमेशा बदनाम करती है। हम उनके दुःख दर्द को समझते हुए उन्हें धरनास्थलों पर आमंत्रित कर रहे है ताकि उन्हें इस संकट की घड़ी में यात्रा व खाने-रहने की समस्या न हो।  प्रवासी कामगारों को निमंत्रण इसलिए है क्योंकि देश के अन्नदाता के रूप में किसान, इन श्रमिकों के संकट को समझते हैं। किसान इन श्रमिकों को यह बताना चाहते हैं कि हम सबका भविष्य असंवेदनशील सरकार की नीतियों के कारण अब व्यर्थ होने जा रहा है, और उन्हें गांवों में वापस रोजगार मिलने की संभावना नहीं है।  यहां, विरोध स्थलों पर, किसान अस्थायी रूप से प्रवासी श्रमिकों की देखभाल करना चाहते हैं। किसानो द्वारा आश्रय और भोजन प्रदान करने में खुशी होगी। यहां जरूरी नियमो का  पालन किया जा रहा है इसलिए संक्रमण का कोई डर नहीं है। एक बार सामान्य स्थिति का एक हिस्सा बहाल हो जाने के बाद, प्रवासी श्रमिक अपने रोजगार स्थलों पर वापस जा सकते हैं, और इससे अनावश्यक यात्रा लागत पर बचत कर सकते हैं। इन स्थितियों में संयुक्त किसान मोर्चा के यह कहना कि "श्रमिकों के साथ किसानों की एकता को मजबूत किया जाएगा"- साफ तौर पर प्रवासी मजदूरों को किसान आंदोलन का साथ देने का आह्वान ही है। इसमें कुछ गलत भी नहीं है, न यह इस आंदोलन की कोई कमजोरी है। उल्टे इससे किसान आंदोलन और देशव्यापी होगा तथा उसकी ताकत और बढ़ेगी।...

                             ★★★★★★★


 

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