आज का किसान
और 'गोदान'
'गोदान' उपन्यास को लिखे लगभग एक सदी बीत रही है। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि गोदान उपन्यास में किसानों की दशा पर उठाए गए सवाल आज भी जीवन्त हैं। 1936 में इसके प्रकाशन के बाद से आज तक गंगा-यमुना में न जाने कितना पानी बह चुका है पर अधिकांश किसानों की दशा स्थिर जैसी है। कुछ बदला है तो खेती के नए साधनों का प्रयोग जो आधुनिक तो है पर वह किसानों की अपेक्षा लुटेरी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अधीन होने के कारण किसानों के नुकसान और कम्पनियों के मुनाफ़े का माध्यम बना हुआ है। खेती के इन नए साधनों या उपकरणों के अधीन किसान आज भी कर्ज़ में डूबी हुई खेती के सहारे जीवन यापन कर रहा है। हल की जगह ट्रैक्टर आ गए लेकिन किसान की आत्मनिर्भरता खत्म हो गई। वह ऐसी खेती की नई-नई मशीनों और उनके मालिकों का गुलाम हो गया।
आज खेतों में ट्रैक्टर, ट्यूबवेल और थ्रेशर तो चलते दिखते हैं पर इनके नाम ही बता रहे हैं कि ये किसानों के नहीं हैं, विदेशी कम्पनियों के हैं। क्या व्यवस्था का जिम्मा लेने वाले हुक्मरानों की इतनी भी कूबत नहीं रही कि वे देश की रीढ़ कही जाने वाली खेती के लिए नए देशी साधनों का विकास कर सकते? विदेशी तकनीक पर आधारित आधुनिक उपकरणों ने किसान का जीवन आसान बनाए जाने की अपेक्षा आज उसका जीवन कैद कर लिया है। किसानों के खेतिहर जीवन में इनकी पैठ ने उन्हें नई तरह का गुलाम बनाया है। इन मशीनों के चलने से खेती के आधुनिकीकरण का बोध तो होता है किंतु उपज का अधिकांश हिस्सा इन मशीनों की खरीद या किराये में जाता है। क्या ऐसा संभव नहीं था कि किसान इनकी गुलामी न कर इन पर अपना अधिकार जमा सकता? अफ़सोस, शासकों की नीतियों के चलते ऐसा न हो सका।
प्रेमचन्द इसीलिए आज भी किसानों के अपने लेखक, उनकी दशा-दुर्दशा को ठीक से समझने वाले लेखक लगते हैं। हाल के किसान आंदोलन ने इस कटु सत्य उजागर कर कम्पनियों और शासकों को बेपर्दा कर दिया है। और यह कोई तुलना नहीं, हकीकत है। आज के औसत किसान और गोदान के होरी में ज़्यादा अंतर नहीं है। शहरों में बैठे बाबू-साहबान को भले ही बहुत अंतर दिखाई दे। प्रेमचन्द युगीन किसान की तरह आज का किसान भी न केवल कर्ज़ लेने के लिए विवश है बल्कि उसके आसपास के राय साहब-नेताजी, दाता-मातादीन, झिंगुरी-लंगुरी, शाह-बोहरे, पुलिस-दरोगा-कप्तान उससे हल-हंसिया छीन हर तरह से बेबस करने के फिराक में ही रहते हैं।आधुनिक हुक्मरानों के ये लांगुरे आज किसान के खेतों में उसके ही गाय-बैलों को हाँकने का इंतज़ाम कर उसे जब-तब 'गो-रक्षा', 'पर्यावरण बचाओ' आदि का भाषण पिलाते रहते हैं। बैंक-साहूकार उसके ट्रैक्टर लेने की गुस्ताख़ी का खामियाजा भुगतने के लिए उसके खेत की नीलामी का नोटिस अखबारों में छपवाते आमतौर पर देखे जाते हैं। इनसे बचकर कोई किसान यदि बच्चों की अच्छी शिक्षा, रहन-सहन की व्यवस्था करना चाहता है तो 'पंडिज्जी' जीवन-मरण, ओझा-सोखा, तीर्थयात्रा, तीज-त्योहार का पोथा लिए उसे मुक्ति का पाठ पढ़ाने को तैयार बैठे हैं। वे तमाम कथा-वार्ताओं से उसे समझाने के लिए घूमते रहते हैं कि यदि 'गोदान' से ही उसे मुक्ति मिल जाएगी तो बाकी मायाजाल में फँसने से क्या फायदा? इस 'सत्य....कथा' का अंतिम सत्य जब 'रामनाम सत्त' है तो काहे को खाद-बीज-पानी की ज़्यादा करो चिंता?...समझे होरी?
आजकल तो और न जाने कितने-कितने भेस में नई-नई तरह के पुरोहित पैदा हो रहे हैं जो आसा-राम-रहीम-भोले-भंडारी बन उसकी दमड़ी और चमड़ी दोनों के ठेकेदार बन उसे चूना लगाने के लिए चतुर्दिक घूमते रहते हैं। इन धरम-करम के धंधेबाजों के लिए गांधी-अम्बेडकर-सावरकर सब कमाई का जरिया बने हुए हैं। किसान बचेगा कैसे?..
★★★★★★★
किसान की स्थितियों का यथार्थ चित्रण।
ReplyDeleteअच्छा ब्लॉग
किसानों का यथार्थ चित्रण।
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