वे फिर हारेंगे!...
-अशोक प्रकाश
ऐसा लगता है जैसे हम किसी दूसरी दुनिया में आ गए हों!..लगता है जैसे यह हमारी वह दुनिया नहीं जिस पर एक मनुष्य के रूप में हमें सुकून महसूस होता था!... लगता था कि ये हवा, ये फूल और उनकी खुशबू, ये नदियां, पहाड़, बाग-बगीचे, आसमान और चांद, ये मिट्टी और उसकी सुगन्ध...पूरी की पूरी क़ायनात पर हमारा भी हक़ है!... न जाने कितने समय से यह धरती हमें अपने आगोश में छुपाए रही है, सहारा देती रही है, तभी तो हमारा अस्तित्व बचा है अभी तक इस पर!...और अब? लगता है जैसे हम गए!...
लेकिन नहीं!...शायद यह हमारा भ्रम है, भ्रम था। एक पल भी संघर्षों के बिना हम इस धरती पर टिके नहीं रह सकते थे। धरती तो एक जीवनदायिनी शक्ति रही है हमारे अस्तित्व की। ...जीने का एक सहारा, एक संसाधन! वह अपने आप न तो हमें जीवन दे सकती थी, न ले सकती थी! इस धरती और हमारे बीच के द्वंद्वात्मकता सम्बन्ध ही हैं जिन्होंने हमें बनाया-बढाया, इस धरती को भी और सुंदर बनाया। हम मनुष्य ही हैं जिन्होंने अपनी जरूरतों के हिसाब से इसे साधा-बांधा!...वह हमीं थे जिसने जंगल, पहाड़, नदियां, सागर सबको जीवन के चलते रहने लायक ही नहीं, बल्कि बेहतर से बेहतर बनाया। धरती पर अपनी भावनाओं और साधनाओं के रंग बिखेरने वाले हम ही तो थे! फिर?...
फिर क्या हुआ?...यह धरती परायी सी क्यों लग रही है?... इतिहास के न जाने कितने चित्र कौंधते हैं!...दिखते हैं युद्धों के भयावह दृश्य!...लड़ते, मरते, भागते, बचते, फिर कहीं बसते...हँसते-मुस्कराते लोग! न जाने कहाँ-कहाँ से कहाँ आ बसे लोग!...वहीं के रह गए या कहीं और जा बसे?...हँसी आती है खुद पर! पहले-दूसरे और 'तीसरे' विश्वयुद्ध पर!...उन कीड़ों-मकोड़ों-जानवरों पर जिन्होंने हमारे पुरखों को खा जाने, निगल जाने में अपनी तरफ से कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी!...पर हम ज़िंदा हैं, कीड़ों-मकोड़ों-जानवरों और अपने आप पर हँसते हुए!!...
तो हम फिर इस ज़िंदगी को और खूबसूरत बनाएंगे! इसे बरबाद, नष्ट कर देने की ख्वाहिश रखने वाले कीड़े फिर हारेंगे, पहले से बेहतर दुनिया फिर बनेगी!...वे जितना भी खुद को अजेय समझते हों, हारेंगे वही! उनके सारे डरावने मंसूबे धरे के धरे रह जायेंगे!...देखेगी यह दुनिया फिर एक दिन- प्रकृति में खिले गुलाब और महमहा उठे हैं!...
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