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विश्वास कैसे बन जाता है संस्कृति?...

                अपनी संस्कृति को जानिए, 

                     पहचानिए!

पूरी दुनिया की सांस्कृतिक विरासतें उन विश्वासों की अभिव्यक्तियाँ हैं जिन पर एक समय में न केवल विश्वास नहीं किया गया, बल्कि उन्हें अंधविश्वास भी माना गया। जुनूनी कलाकारों ने अपनी भावनाओं-कल्पनाओं को ऐसे-ऐसे कलात्मक स्वरूपों में ढाल दिया कि वे विश्वास या अंधविश्वास जनता के अद्भुत प्रेरणास्रोत बन गए। मनुष्य की कल्पना और चिंतन के ऐसे अद्भुत उदाहरण अपने मूल में रहस्यमय हैं, इतने कि इनकी कोई सीमा नहीं बनाई जा सकती। 

मानव-सभ्यता की इस अनथक और अद्भुत विकास-यात्रा में अनगिनत सांस्कृतिक प्रेरणास्रोत मिथकों, कथा-काव्यों, पूजा-पाठों, आदतों, वस्त्राभूषणों, चित्रों, नक्काशियों, इमारतों आदि में अभिव्यक्त हुए हैं। सामयिक जरूरतों और तर्कों के आधार पर इन्हें आसानी से खारिज़ किया जा सकता था और आज भी व्यर्थ सिद्ध किया जा सकता है, किंतु मानव-जीवन के सौंदर्य-दर्शन की ये अभिव्यक्तियाँ आज भी सक्रिय हैं और लोगों के जीवन में खुशियों का संचार करती हैं, उनके जीवन को अर्थवत्ता प्रदान करती हैं। 


पिछले दिनों हमारे देश में, विशेषकर उत्तर भारत में शिवरात्रि, नवरात्रि, काँवड़-यात्रा, पूजाओं, व्रतों, रामलीलाओं, मेलों की धूम रही है। यद्यपि ये कहने को तो 'हिन्दू' आस्थाओं की अभिव्यक्तियाँ है किंतु पूरा समाज इन दिनों इनमें रच-बस जाता है। धर्म इनमें गौण और सांस्कृतिक मनोरंजन मुख्य हो जाता है। आम लोगों में विभाजन पैदा कर कुछ समुदायों को इनसे दूर करने की कोशिशें व्यर्थ सिद्ध होती हैं। धर्म-सम्प्रदाय से ऊपर ये उनके रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा बन जाते हैं। वैसे भी कला संस्कृति-पैदा किसी भी बहाने से हो, होती समग्र मानव-जीवन की अभिव्यक्ति ही है। आप किसी मानव-लीला को देखकर किसी को हँसने-मुस्कराने, क्रोधित होने, भावना से भर जाने, नाचने-गाने से कैसे रोक सकते हैं?... 

चरित्रों का साधारणीकरण हुए बिना कोई भी कथा-काव्य, कृति-विशेष दीर्घजीवी या अमर नहीं हो सकती। विश्वासों की भिन्नता सिर्फ़ उस मनुष्य-विशेष की सीमा होता है, न कि किसी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति की सीमा! ऐसे अवसरों पर निकाली जाती शोभायात्राएं या झाँकियाँ किसी धर्म-समुदाय से ऊपर सबके मनोरंजन का साधन होती हैं। हनुमान का स्वरूप हो या रावण का, उनकी भंगिमाएं सबको लुभाती, हंसाती, बहलाती हैं! यहाँ लगने वाले विभिन्न प्रकार के चाट के ठेले, जलेबी-इमरती आदि की दुकानें क्या सम्प्रदाय या समुदाय तक सीमित हो सकती हैं। विजय दशमी को राम की विजय-दशमी के रूप में मनाएं या अशोक की विजय-दशमी के रूप में, जन सामान्य उन्हें मनोरंजन का एक भिन्न स्वरूप ही मानता है। प्रेरणाएँ और उनके प्रभाव भिन्न हो सकते हैं, उनका रसास्वादन नहीं!


इन सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों का अस्वीकार या नकार भी केवल एक और कला की स्वीकृति के रूप में प्रकट होता है, एक भिन्न संस्कृति के रूप में। किसी विशिष्ट कला का ध्वंस जिन मनुष्यों या समुदायों ने किया, वे मानव-सभ्यता के जन-द्रोही व्यक्तियों के रूप में, असभ्य समुदायों के रूप में जाने-माने गए। किंतु कालांतर में वे स्वयं भी इसी सांस्कृतिक यात्रा का एक भिन्न हिस्सा बन गए। यहाँ यह भी महत्वपूर्ण है कि ऐसे विध्वंसक तत्त्व विरले होते हैं किंतु सत्ता-शक्ति का आश्रय प्राप्त होने पर वे विशिष्ट समूहों/समुदायों को प्रभावित करने में सक्षम सिद्ध होते हो जाते हैं। यह सत्ता-शक्ति राजसत्ता की भी हो सकती है या किसी तरह की स्थानीय सत्ता की, किंतु प्रभावित कर सकने की क्षमता उन्हें विध्वंस की शक्ति प्रदान कर देती है। 'जो चाहो करो, कोई पूछने, रोकने-टोकने वाला नहीं!'... 


दुर्भाग्य से हमारे देश में भी ऐसे संस्कृति के नकारात्मक-तत्त्व पिछले कुछ वर्षों से काफी सक्रिय हुए हैं। राजनीति और राजसत्ता ने उन्हें अपनी जरूरतों के लिए पैदा किया, पाला-पोषा किंतु कालांतर में ऐसे नकारात्मक तत्त्व राजसत्ता के ऊपर ही खतरा सिद्ध हुए हैं। ऐसे भष्मासुर अन्ततः आत्मघाती भी सिद्ध होते हैं किंतु काल-विशेष में वे अपना विशिष्ट प्रभाव छोड़ जाते हैं। मानव की प्रगतिशील-यात्रा में वे प्रतिक्रियावादी शक्ति के रूप चिह्नित होते हैं। लोक-संस्कृति के लिए वे घातक सिद्ध होते हैं, किंतु मानव-सभ्यता की अनथक-अनन्त यात्रा के वे स्वाभाविक सोपान है। इनसे मनुष्य ने बहुत कुछ सीखा है। वे सभ्यता-संस्कृति के नकारात्मक-शिक्षक सिद्ध हुए हैं।

                          ★★★★★★★

Comments

  1. हम इनमें इतने रच बस गये हैं कि यथार्थपरक तथ्यों व इतिहास की ही अनदेखी कर, इन रूढ़ियों परम्पराओं से चिपके हैं।
    कुछ तो अज्ञानवश, पर कुछ पढे लिखे भी भेड़ों की तरह इनको ढो रहे

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