हरियाणा-चुनाव:
चुनाव से पहले का चुनाव
हरियाणा चुनाव में बाज़ी कॉंग्रेस की जगह भाजपा ने मारी! क्यों?...सबके अपने कयास हैं। लेकिन असल-विजेता तो वह 'खेला' है जिसे समझे बिना कॉंग्रेस या विपक्षी गठबंधन भाजपा को कभी मात नहीं दे पाएगा।
22 राज्यों में फैले 90 विधानसभा क्षेत्रों के 1031 उम्मीदवारों का फैसला यहाँ के 2 करोड़ मतदाताओं ने तो कर दिया, लेकिन कैसे किया, इसका उत्तर विश्लेषकों की लोकतांत्रिक प्रक्रिया की समझ के अनुसार अलग-अलग है।
विशेषकर मतदान के दिन के चुनावी रुझानों और परिणाम के दिन के बैलेट-पेपर की गिनती के रुझानों ने आखिरी परिणाम के निष्कर्षों को पूरा मनोरंजक बना दिया। इससे यह बात तो सिद्ध हो ही रही है कि लोकतांत्रिक चुनाव मुख्यतः 'गणितीय खेला' है जिसमें 'चुनावी गणित' की समझ को जमीनी स्तर पर उतारने वाला दल या समूह ही बाजी मार सकता है। जैसे पूरे चुनाव-प्रचार के दौरान ऐसा लग रहा था कि इस बार कॉंग्रेस के पक्ष में 'आंधी' 'तूफ़ान' अगर न सही पर बयार तो जरूर है। किंतु परिणाम ने इस बयार को 'हवा' सिद्ध कर दिया और रुझानों को हवा-हवाई। आम जनता ने साथ भी कॉंग्रेस का दिया लेकिन परिणाम भाजपा की तिबारा और मजबूत सरकार के रूप में सामने है। अब इसे किसी एक व्यक्ति का करिश्मा कहा जाएगा या किसी व्यक्ति की चाणक्य-नीति, पर आत्मविश्वास तो भाजपा का बढ़ा ही है।
इसे और गहराई से देखें तो असल खेला समझ में आ जाएगा। इसमें एक भूमिका संसदीय चुनावों की भी है जिन्होंने भाजपा को 'सावधान' कर दिया तो कॉंग्रेस को अति-आत्मविश्वास से लबरेज़! लेकिन यह एक गौण परिस्थिति है। असल खेला भाजपा की सावधान-मुद्रा में निकाला गया 'गणित' और उसके अनुरूप रचा गया दाँव है जो कॉंग्रेस को सूझा ही नहीं या कुछ समझ आया भी हो तो अति-आत्मविश्वास ने उसे गड्ढे में डाल दिया।
चुनावों के पहले की कुछ घटनाएँ इसे और स्पष्ट कर सकती हैं। इनमें दो विशेष महत्वपूर्ण हैं। पहली, अरविंद केजरीवाल की जेल से बेल पर रिहाई और हरियाणा चुनाव में 'इंडिया गठबंधन' का बिखराव तथा दूसरी घटना, सुसुप्त बसपा का एकाएक सक्रिय हो जाना। ज़ाहिर है, इन दोनों घटनाओं को ठीक समय पर और ठीक से बुना नहीं गया होता तो आज सत्ताधारी कॉंग्रेस होती।..लेकिन ऐसे दाँव चुपचाप खेलना ही खेल का असली मजा देता है। क्या कॉंग्रेस और उसके नेताओं के पास इसकी काट है या थी?... अगर नहीं तो वे चुनाव ऐन वक़्त पर हारते रहेंगे!
दरअसल, संसदीय चुनावों में कॉंग्रेस के बढ़े ग्राफ़ ने भाजपा की चिंताएँ बढ़ाने से ज़्यादा उसे सावधान कर अपनी रणनीति पर पुनः सोचने के लिए मजबूर कर दिया। भाजपा के लिए साम्प्रदायिक एजेंडा मात्र एक आवरण है, किसी भी तरह सत्ता प्राप्त करना उसका असल एजेंडा है। वैसे हमारी इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी भी राजनीतिक दल की यह एक सामान्य इच्छा है। कौन इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया का इस्तेमाल कर अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर पाता है, यह उसकी तकनीक पर निर्भर करता है। जाति, धर्म, साम्प्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, साम्यवाद आदि का आवरण कौन कैसे इस्तेमाल कर लेता है इसी के आधार पर उसे है पूँजीवाद-साम्राज्यवाद खाद-पानी मुहैय्या कराता है। 'समाज', 'देश', 'राष्ट्र' आदि शब्द जनता को देने का वादा करने वाले ऐसे लॉलीपॉप हैं जो इस प्रक्रिया की चकरघिन्नी में जनता की पकड़ से हमेशा बाहर रहते हैं। इन शब्दों से निकलने वाली सुगन्धि का अहसास, दरअसल, हरेक की अपनी नाक और दिमाग की स्थिति पर निर्भर होता है। वैसे ही जैसे शहीद भगत सिंह, महात्मा गाँधी, सुभाषचंद्र बोस अथवा डॉ. आंबेडकर के बारे में अपनी समझ का उपयोग समाज का अलग-अलग वर्ग, समूह या दल भिन्न-भिन्न तरीके से करता और उसके लिए मरता-मिटता है।
किसान आंदोलन ने, जाटों ने, पहलवानों के असर ने भाजपा को 'सजा देने' में कोई कोर-कसर न छोड़ी! पर इस चुनावी गणित के आगे वे वास्तव में उसे 'दंडित' न कर पाए। उल्टे भाजपा तिबारा सेहरा 'सजा कर' आ गई! क्या इन सबके पास असल में इस चुनावी गणित और इस 'लोकतांत्रिक प्रक्रिया' का कोई जवाब है?...नहीं तो, किसान आंदोलन इस चुनावी 'गणित-तंत्र' के चक्कर में न पड़कर असली जमीनी आंदोलन खड़ा करे, किसान-आंदोलन को अपने चुनावी लालसा का पावदान बनाने की चाहत रखने वाले 'नेताओं' से सावधान होकर! कॉरपोरेट उन्हें हल्के में नहीं लेता, न ही उसके प्रिय 'शासक'!
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