Skip to main content

प्रेमचंद अभी भी प्रासंगिक क्यों लगते हैं?..


          प्रेमचंद का कालजयी साहित्य:
    आज इस इक्कीसवीं सदी के इस उथल-पुथल के दौर में, प्रेमचंद साहित्य  की रचना की शुरुआत के लगभग सवा सौ साल बाद भी हमें लगता है कि प्रेमचंद को पढ़ना, उसका जन-जन तक पहुँचना-पहुँचाना अब और ज़्यादा जरूरी हो गया है। आज़ादी की माँग के वे कारण जिन्हें हम औपनिवेशिक दास्ताँ के रूप में जानते आए हैं, आज कहीं और ज़्यादा झकझोरने वाले हैं। आज उस दौर के ठीक उलट विदेशी कम्पनियों के लिए पलक-पाँवड़े बिछाए जा रहे हैं। विदेशों के कई-कई चक्कर काटकर कम्पनियों को लुभाया जा रहा है कि आज भारत पहले से कहीं ज़्यादा निवेश के माक़ूल है, आइए और मुनाफ़ा कमाइए! 'अब दुनिया बदल गई है' - कहकर कितना भी हम इस सच्चाई को ढांपने-तोपने की कोशिश करें किन्तु प्रेमचंद ने 'महाजनी सभ्यता' कहकर जिस गुलामी के खिलाफ जनता में चेतना विकसित की थी, वह आज भी वैसे ही बल्कि उससे भी ज़्यादा हमारी मुश्किलों के लिए जिम्मेदार है। विश्वगुरु का ढोल पीटकर भले ही इसे छुपाने की नाकाम कोशिश की जा रही हो, पर विदेशी-निवेश की लाचारी, विदेशी कर्ज के रूप में 'हर इच्छा कम्पनियों की'- की तरफ़दारी यही सिद्ध कर रही है कि यह व्यवस्था भारत की आज़ादी की रक्षा करने में सक्षम नहीं है।...

  साहित्य हमेशा ही मानवीय सवालों को सारे सवालों के ऊपर रखता है। विशेषकर ऐसा ही ही साहित्य कालजयी साहित्य कहा जाता है। शोषण-अत्याचार किसी भी युग में रहे हों, हिन्दी साहित्य ने हमेशा उसको बेनक़ाब किया है, विरोध किया है। प्रेमचंद की कहानियाँ इस सच्चाई की अभिव्यक्ति की गवाही देती हैं। उनका बाल साहित्य बड़ी आसानी से मानवता को सबसे खड़ाकर हमें उसकी रक्षा की सीख देता है। प्रेमचंद के लगभग भुला से दिए गए बाल-साहित्य की प्रेरणाओं को समझने की कोशिश करें तो पता चलता है कि मनुष्य जीवन के चिर साथी हमारे बीच के अन्य प्राणी भी हमें ऐसी सीख देते हैं। ये कहानियां हमें बहुत कुछ वह सिखाती हैं जिनकी आज महती आवश्यकता है।

आज से लगभग सवा सौ साल पहले जब प्रेमचंद ने लिखना शुरू किया था, जासूसी और ऐय्यारी कहानियों की धूम थी। समाज-सुधार और राष्ट्रीयता की भावना के अलावा साहित्य की यह एक अन्य प्रमुख धारा थी। स्वाभाविक तौर पर प्रेमचंद पर भी इसका असर पड़ा। विशेषकर उनकी जंगल से जुड़ी कहानियों में इसका असर साफ देखा जा सकता है। पालतू भालू, मगर का शिकार, मिट्ठू, बनमानुस की दर्दनाक कहानी, साँप का मणि, बनमानुस खानसामा, बाघ की खाल आदि उनकी जंगल की विशिष्ट कहानियाँ हैं।...

जंगल की इन कहानियों के अलावा प्रेमचंद की गुल्ली दंड, चोरी, कजाकी, नादान दोस्त, दो बैलों की कथा, कुत्ते की कहानी आदि में मनुष्य और उसके नज़दीकी और सहयोगी प्राणियों पर मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है। यहाँ हम मुख्यतः उनकी तीन कहानियों- 'बाघ की खाल', 'पागल हाथी' और 'मिट्ठू' की चर्चा करेंगे और समझने की कोशिश करेंगे कि प्रेमचंद इन प्राणियों के माध्यम से आख़िर कहना क्या चाहते हैं!.. .

बाघ की खाल:

जंगल की इन्हीं कहानियों में से एक प्रसिद्ध और रोमांचक कहानी है- बाघ की खाल। कहानी एक दफ़्तर में काम करने वाले दो दोस्तों द्वारा साइकिल यानी 'दो पैर वाली गाड़ी' से रांची से चक्रधरपुर नामक अपने गाँव 75 मील की यात्रा पर आधारित है। रास्ते में पड़ने वाले जंगल, रात का समय, धीरे-धीरे पीछा करते बाघ, डर से रोंगटे खड़े हो जाने आदि का चित्र रोमांचित कर देने वाला है-

"क्या देखता हूँ कि कोई १५ गज की दूरी पर एक बाघ खड़ा है। मेरे होश उड़ गये। ऐसा जान पड़ा जैसे बदन में खून नहीं है । साँस तक बन्द हो गई । मुझे खड़ा देखकर वह भी रुक गया। फिर मैंने सोचा कि शायद मुझे भ्रम हो गया है, शायद मैं किसी पेड़ की परछाई को बाघ समझ रहा हूँ । यह सोचकर मैं फिर आगे बढ़ा, मगर आंखें पीछे ही लगी रहीं। अबकी बार सचमुच मुझे; पत्तों की खड़खड़ाहट सुनाई दी । मैंने फिर पीछे की ओर देखा । बाघ मेरे पीछे-पीछे चला आ रहा था। मेरे रोयें खड़े हो गये और मैं लकड़ी-सा तन गया। कुछ सोचने की मुझमें शक्ति ही नहीं रही।..."

"..मैं धीरे धीरे पीछे हटने लगा । कोई आठ-दस कदम पीछे हटा था कि अचानक बाघ उठा । मेरा कलेज़ा मानो सिमटकर एड़ियों में धंस गया । बस, वह मुझ पर फांदा ! मैंने झट आंखें बन्द कर लीं और दोनों हाथों से सिर पकड़ लिया। ..."

प्रेमचंद कहानी को उस दौर की विशेषता के अनुरूप 'सुखान्त' बनाने के लिए 'एकाएक मोटर के हार्न की आवाज़' और मोटर में सवार बंदूकधारी इंजीनियर साहब द्वारा लेखकपात्र और उसके दोस्त को बचा लेने की स्वाभाविक कल्पनाशीलता के माध्यम से कहानी में अंत तक उत्सुकता और रोचकता बनाये रखते हैं।

कहानी के अंत में प्रेमचंद लिखते हैं:
" कई दिन मरहमपट्टी करने के बाद मैं अच्छा होकर फिर रांची लौटा। उसके थोड़े हो दिन बाद इंजीनियर साहब ने मुझे एक बाघ की खाल भेज दी और लिखा कि वह उसी बाघ की खाल है। यह खाल अभी तक मेरे पास मौजूद है।"
पाठक को मिलने वाला यह अतिरिक्त सुख 'अंत में सब अच्छा हुआ' के तत्कालीन कथा-बोध का अहसास कराता है। साथ ही इस कहानी से यह समझ विकसित होती है कि अनावश्यक रूप से जंगल के प्राणियों के बीच जाने से क्या नहीं ही सकता!...मतलब ज़्यादा हीरो बनने की जरूरत नहीं!...

पागल हाथी:

लोग ज़्यादातर समझते हैं कि पागल होने की विवशता सिर्फ इंसान की ही होती है या पागलपन का अधिकार सिर्फ मनुष्यों के लिए सुरक्षित है। पागल कुत्ता, पागल हाथी जैसा इंसानों के लिए प्रयोग किया जाने वाला शब्द यही बोध कराता है कि कुत्ता और हाथी पागल हों तो हों, इंसान ऐसा होगा तो उसकी खैर नहीं, उसे जानवर मान लिया जाएगा!..मतलब जानवर पागल हो रहा तो कोई बात नहीं!...

प्रेमचंद पागल हाथी कहानी के माध्यम से आदमी की इसी सींच पर बड़े प्यार से प्रहार करते हैं। कहानी के माध्यम से वे बताते हैं कि भाई, जानवर के पागल होने का कारण भी वह खुद नहीं होता, वे परिस्थितियाँ होती हैं जिनमें उसे डाला गया है। ठीक मनुष्यों की ही तरह! हाथी जानवर है तो क्या हुआ, समझदारी की उसमें भी कमी नहीं।...

इस कहानी में एक राजा के प्रिय हाथी मोती की कथा है। राजमहल में मोती की बड़ी पदवी मिली हुई थी और खाने से लेकर सजाने तक के बढ़िया इंतज़ाम थे। प्रेमचंद लिखते हैं- "यों तो वह बहुत सीधा और समझदार था, पर कभी-कभी उसका मिजाज़ गर्म हो जाता था और वह आपे में न रहता था।..." इसी हालत में एक दिन उसने अपने महावत को मार डाला और उसकी सुख-सुविधाएँ छीनकर उससे 'कुलियों की तरह' काम लिया जाने लगा। परेशान-हाल एक दिन वह जंजीर तोड़कर जंगल की ओर भाग गया किन्तु जंगल के हाथियों ने कटाक्ष करते हुए उसका तिरस्कार किया- "...तुम गुलाम तो थे ही, अब नमकहराम गुलाम हो, तुम्हारी जगह इस जंगल में नहीं है।"...

मोती ने आहत होकर दुबारा महल की ओर जाने का मन बनाया पर भागकर जाते हुए लोगों ने उसको पागल ही समझा। गुस्से में उसने शिकार को जाते हुए राजा को भी मारने की कोशिश की और राजा के छिप जाने पर एक झोपड़ी को तहस-नहस कर दिया। आखिरकार इस पागल हाथी को पकड़ने के लिए एक हजार रुपयों के इनाम की घोषणा की गई पर कोई इसे पकड़ न पाया।....

मोती पर घोषित इनाम की खबर सुनकर मोती द्वारा मार डाले गए महावत का 8-9 साल का बेटा मुरली उसे पकड़ने के लिए जंगल गया। हाथी को देखकर जब उसने उसे मोती कहकर पुकारा तो मुरली को पहचान गया- "मैंने ही इसके बाप को मार डाला है"। मोती के मन के भावों को पहचान मुरली उसके पास गया तो उसने पहले की तरह उसे सूँड़ से उठा अपनी पीठ पर बैठा लिया।...मुरली मोती को लेकर जब महल पहुँचा तब सब ने आश्चर्य किया। राजा ने मुरली को न केवल एक हजार रुपये इनाम दिया, बल्कि उसे अपना खास महावत बना लिया। इस तरह मोती फिर राजा का प्यारा हाथी बन गया।...

प्रेमचंद इस कहानी के माध्यम से अहसास दिलाते हैं कि जानवर भी जब समझदारी से सुधर सकता है, सम्मान पा सकता है तो इंसान क्यों नहीं?...

मिट्ठू:

मिट्ठू नाम से प्रायः हमारे दिमाग में तोते का ख़्याल आ जाता है। पर प्रेमचंद की इस कहानी ने तोते को नहीं एक बंदर को मिट्ठू बताया गया है। मिट्ठू सरकस का एक बंदर है जिसकी सर्कस के जानवरों को देखने आने वाले बच्चों में से एक लड़के गोपाल से दोस्ती हो जाती है। गोपाल उसे रोज चना, मटर, केला आदि खिलाने आता है।...एक दिन जब गोपाल को खबर मिलती है कि सर्कस कम्पनी यहाँ से जाने वाली है तो गोपाल दुखी हो जाता है। वह माँ से जिद्द करके अठन्नी माँगकर मिट्ठू को खरीदने आ जाता है पर कम्पनी मालिक आनाकानी करता है तो गोपाल रोने लगता है। मिट्ठू भी परेशान होता है। सर्कस जाने के पहले एक दिन और गोपाल मिट्ठू को खरीद लेने की आशा से आता है किंतु मिट्ठू कहीं दिखाई नहीं देता। गोपाल निराश सा एक-एक पिंजरे को देखते हुए कब चीते के पिंजरे के पास खड़ा ही जाता है कि उसे पता ही नहीं चलता। चीता एक पंजा निकालकर गोपाल का हाथ खींचने लगता है कि न जाने कहाँ से मिट्ठू चीते के पंजे पर कूद पड़ता है। गुस्से में चीता अपने दूसरे पंजे से मिट्ठू को घायल कर देता है और मिट्ठू बेहोश हो जाता है। चीख-पुकार सुन कम्पनी वाले आते हैं और मिट्ठू को मलहम वगैरह लगाते हैं। मिट्ठू ठीक होने लगता है तो कम्पनी वाला गोपाल-मिट्ठू के प्रेम को देखकर बिना पैसा लिए मिट्ठू को गोपाल को दे देता है।...

प्रेमचंद यहाँ एक बंदर से एक इंसान की दोस्ती की कहानी नहीं कहते हैं बल्कि उससे ज़्यादा इंसानों को सीख देते हैं कि आख़िर कैसे तुम धर्म-सम्प्रदाय-जाति आदि से नफरत कर सकते हो?...■■■ प्रेमचंद साहित्य 

Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

ये अमीर, वो गरीब!

          नागपुर जंक्शन!..  यह दृश्य नागपुर जंक्शन के बाहरी क्षेत्र का है! दो व्यक्ति खुले आसमान के नीचे सो रहे हैं। दोनों की स्थिति यहाँ एक जैसी दिख रही है- मनुष्य की आदिम स्थिति! यह स्थान यानी नागपुर आरएसएस- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजधानी या कहिए हेड क्वार्टर है!..यह डॉ भीमराव आंबेडकर की दीक्षाभूमि भी है। अम्बेडकरवादियों की प्रेरणा-भूमि!  दो विचारधाराओं, दो तरह के संघर्षों की प्रयोग-दीक्षा का चर्चित स्थान!..एक विचारधारा पूँजीपतियों का पक्षपोषण करती है तो दूसरी समतामूलक समाज का पक्षपोषण करती है। यहाँ दो व्यक्तियों को एक स्थान पर एक जैसा बन जाने का दृश्य कुछ विचित्र लगता है। दोनों का शरीर बहुत कुछ अलग लगता है। कपड़े-लत्ते अलग, रहन-सहन का ढंग अलग। इन दोनों को आज़ादी के बाद से किसने कितना अलग बनाया, आपके विचारने के लिए है। कैसे एक अमीर बना और कैसे दूसरा गरीब, यह सोचना भी चाहिए आपको। यहाँ यह भी सोचने की बात है कि अमीर वर्ग, एक पूँजीवादी विचारधारा दूसरे गरीबवर्ग, शोषित की मेहनत को अपने मुनाफ़े के लिए इस्तेमाल करती है तो भी अन्ततः उसे क्या हासिल होता है?.....

नाथ-सम्प्रदाय और गुरु गोरखनाथ का साहित्य

स्नातक हिंदी प्रथम वर्ष प्रथम सत्र परीक्षा की तैयारी नाथ सम्प्रदाय   गोरखनाथ         हिंदी साहित्य में नाथ सम्प्रदाय और             गोरखनाथ  का योगदान                                                     चित्र साभार: exoticindiaart.com 'ग्यान सरीखा गुरु न मिल्या...' (ज्ञान के समान कोई और गुरु नहीं मिलता...)                                  -- गोरखनाथ नाथ साहित्य को प्रायः आदिकालीन  हिन्दी साहित्य  की पूर्व-पीठिका के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।  रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य के प्रारंभिक काल को 'आदिकाल' की अपेक्षा 'वीरगाथा काल' कहना कदाचित इसीलिए उचित समझा क्योंकि वे सिद्धों-नाथों की रचनाओं को 'साम्प्रदायिक' रचनाएं समझत...

अवधी-कविता: पाती लिखा...

                                स्वस्ती सिरी जोग उपमा...                                         पाती लिखा...                                            - आद्या प्रसाद 'उन्मत्त' श्री पत्री लिखा इहाँ से जेठू रामलाल ननघुट्टू कै, अब्दुल बेहना गंगा पासी, चनिका कहार झिरकुट्टू कै। सब जन कै पहुँचै राम राम, तोहरी माई कै असिरबाद, छोटकउना 'दादा' कहइ लाग, बड़कवा करै दिन भै इयाद। सब इहाँ कुसल मंगल बाटै, हम तोहरिन कुसल मनाई थै, तुलसी मइया के चउरा पै, सँझवाती रोज जराई थै। आगे कै मालूम होइ हाल, सब जने गाँव घर खुसी अहैं, घेर्राऊ छुट्टी आइ अहैं, तोहरिन खातिर सब दुखी अहैं। गइया धनाइ गै जगतू कै, बड़कई भैंसि तलियानि अहै। बछिया मरि गै खुरपका रहा, ओसर भुवरई बियानि अहै। कइसे पठई नाही तौ, नैनू से...