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उच्च-शिक्षा की दशा-दिशा:

                 

                         🔴भारत की उच्च शिक्षा🔴

                                         -प्रोफेसर वी एस दीक्षित,
                                                दिल्ली विश्विद्यालय


            आज सरकारों ने शिक्षा को अपनी नीतियों से ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है जहाँ से समाधान का कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा है।हर तरफ तबाही का आलम है चाहे वो शिक्षकों की बात हो, विद्यार्थियों की बात हो या कर्मचारियों की बात हो। शिक्षा ब्यवस्था में शिक्षक,विद्यार्थी और कर्मचारी एक दूसरे के पूरक हैं। एक दूसरे के बिना किसी की कोई गति नहीं है। आज निजीकरण और व्यापारीकरण की सरकारी नीतियों ने इन सभी को कहीं न कहीं बुरी तरह से प्रभावित किया है।    विद्यार्थियों की वजह से शिक्षक हैं ।कर्मचारी इन दोनों के बीच की कड़ी हैं। सरकार लगातार उठती आवाजों के बावजूद मूकदर्शक बनी हुई है और निजीकरण की नीतियाँ लादने को तत्पर है।
                मैं पहले अपनी बात विद्यार्थियों शुरू करुँगा। जब मैं  विद्यार्थियों की बात कर रहा हूँ तो इसमें समाज के सभी वर्गों के  विद्यार्थियों की बात समाहित है चाहे वो किसानों के बच्चे हों, गरीबों के बच्चे हों या दलित आदिवासियों के बच्चे हों। यहाँ मैं धनाढ्य परिवारों से आने वाले बच्चों की बात नहीं कर रहा हूँ। इस मँहगाई के जमाने में सूदूर क्षेत्रों से गरीब परिवारों के बच्चे सरकारी संस्थानों में पढ़ने आते हैं। सब जगह छात्रावास की सुविधा नहीं है। किराये पर मकान लेकर रहते हैं।एक कमरे का किराया कम से कम ८००० रुपये है। कई बच्चे मिलकर एक कमरे को शेयर करते हैं। ऊपर से खाने पीने, किताब-कापी का खर्चा कम से कम  ७००० रुपया है। इसके ऊपर कालेज की फीस! आज क्लास रूम अध्यापन एकदम खत्म होने को है। एक तरफ शिक्षकों की कमी के चलते तथा दूसरी तरफ रैंकिंग की प्रथा चलने के कारण। आज अलग-अलग तरह की रैंकिंग एजेन्सियाँ बाजार में आ गयी हैं।सबके अपने पैरामीटर्स हैं।उन पैरामीटर्स को येन केन प्रकारेण पूरा करने की होड़ लगी है।सरकारी पैसे की खुलेआम बरबादी हो  रही है। प्राचार्यों के आदेशानुसार सारे शिक्षक इन कामों को पूरा करने में लगे रहते हैं। जब कक्षा नहीं होती तो ये बच्चे ट्यूशन पर भी खर्चा करते हैं। कुल मिलाकर एक विद्यार्थी का औसतन बीस हजार खर्चा पड़ता है। जब मैं यूजीसी का ओएमयू -2017 का डाक्यूमेन्ट पढ़ रहा था तो हतप्रभ रह गया जिसमें विद्यार्थीयों की फीस नियत रुप से बढ़ाने की बात है। सरकारें अपनी नीतियों से स्पष्ट करती जा रही हैं कि वो ज्यादा से ज्यादा स्ववित्तपोषित आधार पर विषयों को खोलना चाहती हैं जिससे संस्थान विद्यार्थियों से मनमानी फीस वसूल कर सकें। बदले में सरकार अपनी फंडिंग इन संस्थानों को कम कर सके। गरीब विद्यार्थियों के लिये पढ़ाई एक दूभर विषय बनता जा रहा है। जब नैक टीम के एक्सपर्ट संस्थानों में विजिट करने आते हैं तो बहुत सारे दबाओं के बीच विद्यार्थी गलत फीडबैक देने को बाध्य होते हैं। विद्यार्थियों से फीडबैक लेने का कुछ स्वतन्त्र तरिका नैक टीम को अपनाना चाहिये।लेकिन दुर्भाग्य से वो अपनी सेवा-सुषूश्रा से ही वशीभूत रहते हैं। एक एक क्लास में सौ-सौ विद्यार्थी पढ़ते हैं। विद्यार्थियों को आधारभूत संसाधन पढ़ने के लिये मौजूद नहीं हैं।लैब स्टाफ नहीं हैं। हैं भी तो विद्यार्थियों की सँख्या के हिसाब से बहुत कम! रिसर्च-स्कालर्स को फन्डिंग कम होने की वजह से रिसर्च करने में बाधायें आ रही हैं। बिना इन चीजों पर ध्यान रखते हुये नीतियों का गठन हो रहा है जिससे सरकारी संस्थानों को निजी किया जा सके और मनमानी फीस वसूली जा सके। आज कम सरकारी फीस के होने के बावजूद गरीब परिवारों को उनके बच्चों को साहूकारों अथवा बैंक से कर्ज लेकर पढ़ाना पड़ रहा है। पूर्ण निजीकरण की स्थिति में क्या हाल होगा, सोचनीय प्रश्न है। गरीबों परिवारों के बच्चों का तो पढ़ना मुहाल हो जायेगा। शिक्षा संस्थान सिर्फ कुलीन लोगों की जागीर बन कर रह जायेंगे।
             शिक्षक जो कि एक लम्बी तपस्या के बाद इस क्षेत्र में पदार्पण करता है।स्नातकोत्तर होने के बाद वो नेट पास करता है। फिर रिसर्च करता है। लगभग 30  साल की आयु में वो शिक्षण के क्षेत्र में आता है। इसके अलावा कोई ऐसा प्रोफेसन नहीं है जिसमें इतनी लेट एन्ट्री हो। फिर उसको कई साल तदर्थ/संविदा/ठेके पर पढ़ाना पड़ता है, वो भी औने-पौने पारिश्रमिक पर। कोई सुविधा नहीं,एलाउन्स नहीं। औसतन 35 से 45 साल के बीच की उम्र में स्थायी हो पाता है। तदर्थ अवस्था में वह गुलामी करने को मजबूर है।
                    रोज रोज बदलती सरकारी नीतियाँ इसके लिये पूरी तरह से जिम्मेदार हैं जिससे स्थायी पद भरे नहीं जा सके हैं और जिस तरीके से आगे निजीकरण की नीतियाँ आ रही हैं, लगता है भरना सम्भव भी नहीं होगा। अभी हाल के सातवें पे-कमीशन में एमफिल और पीएचडी इन्क्रीमेन्ट बन्द कर दी गयी है। अब आप ही बताइये कोई क्योंकर शोध करेगा? और नये टैलेन्ट्स को शिक्षा क्षेत्र में कैसे आकर्षित करेंगे? सौ-सौ विद्यारर्थियों को एक-एक शिक्षक पर लाद दिया गया है। इनका इन्टर्नल एसेसमेन्ट, इनका टेस्ट इत्यादि-इत्यादि। सब कुछ यान्त्रिक सा हो गया है। क्वालिटी एजुकेशन के लिये जगह ही नहीं बची है। अभी दिल्ली विश्वविद्यालय में एक तदर्थ शिक्षक तो बिना स्थायी हुये ही सेवानिवृत्त हो गया। स्थायी शिक्षकों की स्थिति कोई जुदा नहीं है। पदोन्नति वगैरह न होने से उनमें घोर निराशा है। पदोन्नति 2008 से एपीआई, तीसरे और चौथे संशोधनों के बीच फँसकर रह गयी है। लाइब्रेरियन,फिजीकल एजुकेशन,और एकेडिमिक स्टाफ को नान-टीचिंग करने की नीतिगत बदलाव जारी है। 2004 के बाद पेन्शन शिक्षकों से छीन ली गई है। सामाजिक सुरक्षा शिक्षकों को नाम मात्र की नहीं हैं।हेल्थ सेवायें गड़बड़ हैं।स्थायी शिक्षकों का जिनकी सँख्या कम होने की वजह से मजबूरन दूसरे क्लेरिकल टाईप कामों में फँसने से उनका अध्यापन कार्य बाधित हो रहा है। जिसका सीधा असर विद्यार्थीयों पर हो रहा है और शिक्षकों का भी मोराल घट रहा है। जल्द से जल्द खाली पदों को भरा जाये और निजीकरण परक  नियमों में सतत बदलाव की वजह से शिक्षकों को जो समस्यायें झेलनी पड़ रही हैं उन बाधाओं को त्वरित रूप से दूर करने का प्रयास हो। विद्यार्थियों के साथ न्याय हो सके इसके लिये शिक्षकों को उनका न्यायोचित अधिकार दिलाना जरूरी है।
                  शिक्षा संस्थानों के कर्मचारी भी आजकल बुरे दौर से गुजर रहे हैं। ठेका प्रथा की शुरुवात के बाद कर्मचारियों को 8000 से 10000 रूपये की मासिक आय पर नियुक्त किया जा रहा है। पुराने कर्मचारी सेवानिवृत्त हो रहे हैं जो स्थायी कर्मचारी बचे भी हैं उनका प्रमोशन नहीं हो रहा है। जो कर्मचारी पिछले कई वर्षों से तदर्थ रुप में काम कर रहे थे वे तदर्थ से हटाकर ठेके पर कर दिये गये हैं। भर्ती की उम्र 28 साल तय कर देने की वजह से इनकी नौकरी को खतरा पैदा हो गया है। दस-दस बारह-बारह साल संस्थानों को देने के बाद ये कर्मचारी कहाँ जायेंगे, सोचनीय प्रश्न है। इनकी सेवा शर्तें ऐसी हैं कि ये अपने साथ हुए अन्याय के खिलाफ मुँह भी नहीं खोल सकते। कभी-कभी प्रशासन की मनमानी झेलने को भी बाध्य होते हैं। लैब्स में कर्मचारियों की संख्या कम होने से प्रयोगात्मक कार्यों में बाधा आ रही है। सातवीं सीपीसी में इनके मामले की कोई चर्चा ही नहीं है।
             शिक्षा ब्यवस्था के बुरे हाल का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बेरोजगारी के जमाने में चतुर्थ श्रेणी की नौकरियों के लिये भी एमबीए और पीएचडी धारक बड़ी संख्या में अप्लाई कर रहे हैं।
            अगर शिक्षा ब्यवस्था में कुछ गुँणात्मक बदलाव की पहल सरकार को करनी है तो उसको बाजार परक गरीब विरोधी नीतियों को छोड़कर नये सिरे से इसकेे विभिन्न पहलुओं पर विचार करना होगा। शिक्षा में सरकारी फन्डिंग को बढ़ाना होगा, शिक्षकों और कर्मचारियों को भारी संख्या में स्थायी करना होगा। संसाधनों का विस्तार करना होगा। शिक्षा व्यवस्था के विभिन्न अवयवों को भी एक जुट होकर सरकार पर भारी दबाव बनाने की जरुरत है। यूजीसी को प्राचार्यों को बुलाकर आटोनामी पर वर्कशाप करने की जगह शिक्षा के बिगड़ते हालात को कैसे दुरुस्त करें, इस पर वर्कशाप और परिचर्चा आयोजित करनी चाहिये। अगर जल्दी ही कारगर कदम नहीं उठाये गये तो और ज्यादा भयावह परिणामों की आशंका है।🔴

Comments

  1. सर आपका लेख पढ़ कर अच्छा लगा आपने सभी कामियों को उजागर किया। सरकारी नीतियों के साथ साथ हमें शिक्षण संबंधित नैतिकता को भी ध्यान में रखना चाहिए।

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