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एक चिट्ठी:



                      एक पत्र...- प्रधानमन्त्री के नाम



प्रिय श्री मोदी जी ,

आप देश के लिए बहुत कुछ करना चाहते हैं , यह आपके शब्दों से ही नहीं कार्यों से स्पष्ट हो रहा है। आप उन बुनियादी समस्याओं पर ध्यान दे रहे हैं जिन पर लोगों का ध्यान जाना चाहिए पर जाता नहीं है। स्वच्छ भारत अभियान उनमें से एक है। इसके लिए आप साधुवाद के पात्र हैं।

इसी दृष्टि से मैं यह पत्र आपको लिख रहा हूँ ताकि कुछ और आवश्यक बातों की ओर आपका ध्यान जा सके।

क्योंकि आप मुझे जानते नहीं हैं , इसलिए मैं निवेदन करूँ कि मैं 28वर्ष तक एनसीईआरटी में कार्यरत था और वहाँ से 1988 में मैंने अवकाश ग्रहण किया। 1950 से अब तक शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत हूँ और अभी भी 86 वर्ष की अवस्था में उसी कार्य में संलग्न हूँ।

मैं शिक्षा के बारे में कुछ जानता हूँ और मुझे उस क्षेत्र का कुछ अनुभव है, इसलिए यह पत्र आपको संबोधित है।

यह देखकर खेद होता है कि जहाँ आप देश को सभी दिशाओं में आगे ले जाने का प्रयास कर रहे हैं , आपकी दृष्टि में शिक्षा ने वह स्थान नहीं पाया है जिसकी वह हकदार है। इस विषय में निम्नलिखित बातों पर आपसे ध्यान देने के लिए प्रार्थना है।

1. कृपया शिक्षा पर, विशेषकर प्रारंभिक शिक्षा पर , सबसे अधिक ध्यान दें। आप देश को आर्थिक रूप से समृद्ध देश बनाने का प्रयास कर रहे हैं, यह सराहनीय है। देश में आर्थिक समृद्धि हो, हमारे यहाँ बुलेट ट्रेनें चलें, यह अच्छी बात है। पर सबसे पहली आवश्यकता देश में अच्छे नागरिक बनाने की है जिसमें शिक्षा का सबसे बड़ा योगदान होता है। जन्म से मृत्यु तक मनुष्य जो कुछ भी करता है उसमें या तो उस भोजन का हाथ है जो उसके शरीर में गया होता है या फिर उन जानकारियों और विचारों का जो उसके औपचारिक और अनौपचारिक ढंग से सीखने के द्वारा उसके मन में पहुँचे होते हैं। इस प्रकार अच्छी विद्यालयी शिक्षा का जीवन में बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। यदि विद्यालय में औपचारिक शिक्षा अच्छी प्रकार से नहीं हुई है तो व्यक्ति अनौपचारिक रूप से , अपने धर्म , राजनैतिक नारेबाज़ी , मीडिया और पारस्परिक बातचीत से जो सीखता है उसका स्थान उसके मानस में बढ़ता और गहरा होता जाता है। आज देश में चारों ओर जो धार्मिक उन्माद दिखाई दे रहा है और राजनीति में उथलापन और भ्रष्टाचार बढ़ता जा रहा है उसका सबसे बड़ा कारण है कि हमारे विद्यालयों में जानकारी देने के साथ विद्यार्थियों में स्वतंत्र चिन्तन की क्षमता और कर्तव्यपालन की भावना का विकास नहीं किया जा रहा। हमारे विद्यार्थी अपनी ओर से सोचकर तथ्य और मत में , और सूचना और विज्ञापन में अंतर नहीं कर सकते, इसलिए वे बड़े होकर भी दूसरों के बहकावे में आते रहते हैं। यह परिस्थिति देश में अनेक प्रकार के तनाव और खतरे उत्पन्न कर रही है। शिक्षा के प्रारंभिक स्तर से ही बच्चों को शारीरिक दृष्टि से ही नहीं, मानसिक रूप से भी स्वावलंबी बनाने का प्रयास करना आवश्यक है।

2. कृपया शिक्षा से संबद्ध मंत्रालय का नाम मानव संसाधन विकास मंत्रालय से बदलकर सीधे शिक्षा मंत्रालय करें। बहुत पहले देश के एक प्रधानमंत्री ने आधुनिकीकरण की बहकी हुई झोंक में इस मंत्रालय को मानव संसाधन विकास मंत्रालय का नाम दे दिया था। यह सोचा गया था कि देश में आधुनिक औद्योगिक विकास होगा तो उसके लिए बड़ी संख्या में वैज्ञानिक, इंजीनियर, मैकेनिक आदि की ज़रूरत होगी। यह सोच अपनी जगह सही थी। पर मानव संसाधन का विकास शिक्षा का एक बहुत ही छोटा अंग है। पूरी शिक्षा को मानव संसाधन विकास का रूप दे देना ऐसा ही है जैसे समूची कृषि - व्यवस्था को केवल गन्ने की खेती के साथ जोड़ देना।

आज शिक्षा मानव संसाधन विकास मंत्रालय के एक विभाग के रूप में है। इससे शिक्षा का उद्देश्य ही विकृत हो गया है। शिक्षा का उद्देश्य केवल इंजीनियर आदि बनाना नहीं है , *शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को मनुष्य बनाना है* जिस पर अभी ध्यान नहीं दिया जा रहा। मनुष्य के लिए जानकारी ज़रूरी है, पर उस जानकारी का उपयोग किस प्रकार करना है यह उससे भी ज़्यादा ज़रूरी है। आज लोगों तक कौन - सी जानकारी किस रूप में दी जाएगी इसे भी अनेक प्रकार से नियंत्रित किया जा रहा है। जब जानकारी का एकत्रीकरण और वितरण स्वार्थी लोगों के हाथ में आ जाता है तो देश की चिन्तन - क्षमता का विकास रुक ही नहीं जाता , उसमें विकृतियाँ आने लगती हैं। आज मीडिया में जिस प्रकार तकनीकी जानकारी का दुरुपयोग हो रहा है यह हमारी आँखों के सामने है।

शिक्षा के क्षेत्र में क्या किया जाना चाहिए इसे समझना और उसके अनुसार कार्य करना बहुत मुश्किल नहीं है। आखिर, हमारे देश में पाँच हज़ार साल की शिक्षा की अविच्छिन्न परंपरा है जिससे हम आज भी बहुत कुछ सीख सकते हैं। इस बारे में विचार - विनिमय होने पर बहुत - सी उपयोगी बातें सामने आ सकेंगी।

3. बच्चों के पोषण पर ध्यान दिया जाना बहुत आवश्यक है।गाँवों के बच्चों की फोटो आए दिन किसी न किसी प्रसंग में अखबारों में आती रहती है। उन्हें देखते ही पहला ध्यान इस बात पर जाता है कि वे लगभग सभी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं।

इसका सबसे बड़ा कारण है कि उन्हें छोटी उम्र में दूध पीने को नहीं मिलता। विंस्टन चर्चिल ने कहा था , *"The best investment a nation can make is to put milk into its children."* यह एक बहुत ही सार्थक कथन है। जो देश अपने बच्चों को आवश्यक मात्रा में दूध नहीं दे सकता वह उनके प्रति अपराध कर रहा है।

आप अपने भाषणों में लोगों से बीच - बीच में सवाल करते हैं जो अच्छी बात है। अगली बार किसी बड़ी सभा में अपने श्रोताओं से पूछिए आपमें से कितनों के बच्चे नियम से एक गिलास दूध पीते हैं वस्तुस्थिति तुरंत आपके सामने आ जाएगी।

देश में दूध का जितना उत्पादन होता है उसका एक बड़ा भाग दूध की मिठाइयाँ बनाने में लग जाता है जो दूध को गरीबों की पहुँच के बाहर कर देता है और पैसेवाले लोगों के स्वास्थ्य को खराब करता है। आप यह कर सकते हैं कि जब तक देश के सभी बच्चों को आवश्यक मात्रा में दूध नहीं मिलता दूध की मिठाइयाँ बनाने पर प्रतिबंध रहेगा। बजाय इसके कि कुछ लोग हलवाइयों की दुकानों के आगे दूध की मिठाई न बनाने के लिए धरना दें, आपकी सरकार का एक आदेश इसके लिए काफी होगा। कुछ विरोध होगा, पर आपको विरोध सहने का अभ्यास है , इसलिए यह काम कर सकना आपके लिए बहुत कठिन नहीं होना चाहिए।

               आप यह कर सकते हैं कि मध्याह्न भोजन (midday meal) में अगले दस वर्ष तक सभी बच्चों को दूध दिया जाए। कुपोषण के शिकार बच्चों को अच्छी शिक्षा देना असंभव है। वे निर्बल शरीर के साथ निर्बल मस्तिष्क लेकर विद्यालय आते हैं और जो कुछ उन्हें सीख सकना चाहिए उसका दस प्रतिशत भी नहीं सीख पाते। यदि आज पाँचवीं कक्षा के कुछ विद्यार्थी दूसरी कक्षा की पुस्तक भी नहीं पढ़ पाते तो इसका एक बड़ा कारण यह है कि उनके मस्तिष्क में सीखने के लिए आवश्यक क्षमता नही है।

              आप एक नारा दे सकते हैं *पौष्टिक भोजन और अच्छी शिक्षा हर बच्चे का जन्मसिद्ध अधिकार है।* फिर राज्य सरकारों को इसके अनुसार काम करने के लिए कहिए और उनकी आवश्यक सहायता कीजिए। केवल एक नारे से हमारे अनेक शैक्षिक - सामाजिक क्षेत्रों को नई दिशा मिलनी शुरू हो जाएगी।

            एक पुस्तक में यह पढ़कर प्रसन्नता हुई कि गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए आपने गाँवों में एक प्रयोग किया था जिसमें दुधारू पशु रखनेवाले सभी ग्रामवासियों से प्रतिदिन अपने घर के दूध का कुछ भाग गाँव की आँगनवाड़ी के बच्चों को देने के लिए एक स्थान पर एकत्रित करने के लिए कहा गया था। पुस्तक के अनुसार प्रयोग बहुत सफल रहा। कोई कारण नहीं कि देशवासियों में यह भावना नहीं जगाई जा सके कि दूध पर पहला अधिकार बच्चों का है। दूध का अधिक से अधिक उत्पादन हो और वह नियमित रूप से बच्चों को पीने के लिए मिले यह उनकी समुचित शिक्षा के लिए बहुत ही आवश्यक है।

                                       भवदीय,
                                                     अनिल विद्यालंकार

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