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औटा-चुनाव

                             कुछ प्रतिक्रियाएं


डॉ.भारत सिंह:
            औटा के सभी नवनिर्वाचित पदाधिकारियों को हार्दिक बधाई। व्यवस्था व कार्यप्रणाली परिवर्तन के लिए उत्सुक उत्साही शिक्षकों ने प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली के माध्यम से नयी औटा गठित की है।    कार्यकारिणी में आधिकांश नये चेहरे व कतिपय पुराने चेहरे भी निर्वाचित किये गये हैं।
  प्रक्टीकल व पैनल्स पर केन्द्रित रही औटा सामान्य छात्र, अभिभावक व शिक्षक हितों के प्रति संवेदनशीलता, विश्व विद्यालय प्रशासन के नीतिगत निर्णयों में शिक्षक प्रतिनिधियों की निर्लोभ, न्यायपूर्ण,सक्रिय व प्रभाव शील भूमिका जैसे मुद्दों की ओर किस सीमा तक विकेनिद्रत हो पायेगी,नवगठित औटा के लिए यह चुनौती पूर्ण कड़ी परीक्षा होगी।

डॉ.अरविन्द कुमार:
         निर्वाचन प्रक्रिया पूर्ण हुई!... हमें अब मुख्य मुद्दों पर विचार करना होगा और अपने नेतृत्व को सुझाव देने होंगे! मेरा विद्वान साथियों से अनुरोध है कि निम्न मुद्दों पर विचार कर अपनी राय व विचार अवश्य दें-
१ - औटा सामूहिक नेतृत्व प्रणाली विकसित करे जिससे प्रत्येक आन्दोलन में सभी शिक्षकों की सहभागिता सुनिश्चित हो! हम व्हट्स-ऐप पर वैचारिक क्रान्ति न करे ।
२- औटा के सम्मान संरक्षण हेतु समवेत प्रयास  हों ।
३- वि० वि० की विभिन्न समितियों यथा आर० डी० सी० परीक्षा-समिति आदि में महाविद्यालयी शिक्षकों को नियमानुसार प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाये।
४-स्ववित्त-पोषित महाविद्यालयों में  छात्र संख्या निर्धारित की जाय।
५- वरिष्ठता सूची का नियमित प्रकाशन हो।
६-बाह्य परीक्षकों का प्रतिशत निर्धारित किया जाये।
७-शिक्षक अनुमोदन पैनल, प्रायोगिक परीक्षकत्व आदि के आवंटन की पारदर्शी प्रणाली बनाई जाए।
      -ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जो सामूहिक प्रयासों व ज़िम्मेदारी से हल होंगे। केवल नेतृत्व को सौंपकर हम समस्याओं के हल होने की आशा न करें। सभी को सामूहिक प्रयास करने होगे ऐसा मेरा मत है!

डॉ.भूपाल सिंह:
            संगठन के नये पदाधिकारियों और कार्यकारिणी का गठन हुआ है। हम सब आशान्वित हैं। शिक्षक समुदाय के समक्ष समस्यायें तो अनेक हैं लेकिन सबसे पहली समस्या स्ववित्तपोषित महाविद्यालयों की विश्वविद्यालयी परीक्षाओं का अपने महाविद्यालयों में कराना है। यह समस्या जल्दी ही हमारे सामने होगी. शीतकालीन अवकाश के बाद इसकी तैयारी होने लगेगी, फिर यह तर्क दिया जाने लगेगा कि अब अन्तिम क्षणों में क्या हल निकले। हमें इस पर आम राय बनानी होगी कि क्या हम इन परीक्षाओं के लिए तैयार है। बड़े कॉलेजों में स्वयं की छात्र संख्या इतनी होती है कि इतनी बड़ी छात्र संख्या के इन्तजामात करना ही उनके लिए बड़ा काम होता है। छोटे कॉलेजों के पास इतने ही संसाधन है कि वे अपने कम बच्चों की परीक्षायें ही करा पायेंगे। इतना ही नहीं सवाल इससे बड़े हैं। स्ववित्तपोषितों के मालिकानों का राजनीतिक दबदवा, इन महाविद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों का अनुशासन स्तर, इनकी परीक्षा देते रहने के पुराने तरीके, आदि। ये गम्भीर मसला है इस पर विचार विनिमय होना चाहिए.... एकाएक इतनी छात्र संख्या को सम्हालना किसी भी कॉलेज के लिए संभव नही है। औटा को इस संदर्भ में सतर्क रहने की आवश्यकता है। एक समय देखा कि चुनाव प्रचार के लिए फोटो प्रचारित करने वालों और उनको उत्साहित करने वालों की अच्छी क्रियाशीलता रहती थी, अब उन नेताओं को आगे आना चाहिए अपनी राय रखनी चाहिए. जितने साथी इसमें हिस्सेदारी व्यक्त करेंगे मुद्दे को उतनी मजबूती से हम उठा पायेंगे।.....एक साथी ने फोन पर बताया कि उनके महाविद्यालय के चारों ओर तमाम राजनीतिक प्रभुत्व वाले लोगों के कॉलेज हैं, यदि हम नकल विहीन परीक्षा की बात भी करेंगे तो या तो नौकरी से हाथ धोयेंगे या जान से.

डॉ.शशी कांत पाण्डेय:
               विश्वविद्यालय अधिनियम, 1973 विश्वविद्यालय की शक्तियों में कही भी स्नातक, स्नातकोत्तर स्तर पर विद्यार्थियों के  प्रवेश को विश्वविद्यालय द्वारा किये जाने की अनुमति/ शक्ति नहीं देता। क्या आगरा विश्वविद्यालय के महाविद्यालय प्रवेश का अधिकार समर्पित कर चुके हैं? विश्वविद्यालय संबद्धता के नियमों से ही विद्यार्थी-शिक्षक-ढांचागत सुविधाओं के समुचित अनुपात का आकलन होता है जिसका मूल्यांकन विश्वविद्यालय/शासन द्वारा सम्बद्धता देते समय किया जाता है। इससे इतर किसी प्रकार का कार्यभार आरोपित किया जाना सामान्य शैक्षणिक अवस्थापना की जरूरतों का उल्लंघन है।...किसी स्थान पर एक महाविद्यालय के शैक्षणिक अथवा परीक्षा संबंधित कार्यभार को किसी अन्य महाविद्यालय को लादने संबंधित कोई शासनादेश अथवा प्रावधान मेरे संज्ञान में नहीं।....नियमित शैक्षणिक सत्र में सामान्य छात्रों के शिक्षा के अधिकार से वंचित किये जाने का भी मसला है।....हमारे पढ़ाने के अवसरों का हनन तो है ही जहां महाविद्यालय केवल निर्देशित प्रवेश एवं परीक्षा केंद्र में तब्दील हो चुके हैं।...सम्बद्धता के नियम, विश्वविद्यालय के क्षेत्राधिकार, किसी प्रवेश दिए गए पाठ्यक्रम में समुचित शिक्षा का अधिकार- आदि महाविद्यालयों के अधिकार सुरक्षित करते हैं। औटा या महाविद्यालय आगे बढ़े। विश्वविद्यालय से बातचीत करें। रास्ता निकलेगा।...

डॉ प्रशांत अग्रवाल:
              अशासकीय महाविद्यालयों को केवल परीक्षा केंद्रों के रूप में बदल दिया जाना कहीं से भी उचित नहीं है और वह भी उस परिस्थिति में जब कई महाविद्यालयों में शिक्षकों के पद बहुत संख्या में रिक्त पड़े हुए हैं, ऐसे में स्ववित्त-पोषित महाविद्यालयों के छात्रों की भी नक़लविहीन परीक्षा कराना एक बहुत ही मुश्किल लक्ष्य हो जाएगा. जैसा कि हम सभी जानते हैं कि स्ववित्तपोषित महाविद्यालयों से सम्बंधित समस्याएं एक सुव्यवस्थित प्रक्रिया हैं जिसे बड़ी योजनाबद्ध तरीके से अनेक नियमों के लचीलेपन की आड़ में पाला-पोसा गया हैं. निश्चित रूप से हम सभी चाहते हैं कि नकलविहीन परीक्षाएं हों लेकिन हम यह भी चाहते हैं कि इस प्रक्रिया में हमारे सम्बंधित महाविद्यालयों के संसाधनों को ध्यान में रख कर ही कोई कार्ययोजना बने. चाहे-अनचाहे हम एक ऐसी परिस्थिति में फंस चुके हैं जहां हमें उन समस्याओं के निदान में जबरदस्ती घसीटा जा रहा हैं जिनसे हमारा सीधे तौर पर कोई भी सम्बन्ध नहीं हैं लेकिन निश्चित रूप से हम उस समस्या के अप्रत्यक्ष प्रभावों से अछूते भी नहीं हैं!...

डॉ. सुरेखा तोमर:
           जब तक विरोध नहीं होगा, चुप-चाप आदेशों का पालन होता रहेगा...तब तक शोषण ही होना है भाई!...

अशोक द्विवेदी:
        केवल नेतृत्व पर सब कुछ छोड़कर पल्ला नहीं झाड़ लेना चाहिए, क्योंकि यही वह बिंदु  है जिस पर यदि आम शिक्षकों ने ध्यान नहीं दिया तो पतन शुरू होता है!...फिर नेतृत्व हमारे बीच से ही है- आज ये, कल वो!....अगर हम अपने साथी को 'नेतागीरी' के लिए छोड़ देंगे तो भ्रष्ट व्यवस्था उसे लपक लेगी!...वह हमसे दूर होता जाएगा और अन्ततः इस तरह उसी में आकण्ठ डूब जाएगा कि उबारना भी मुश्किल होगा!...नेतृत्व को साथी मानें और नेतृत्व को भी यह ख्याल रखना चाहिए कि कम से कम अपनों के बीच वह साथी ही सिद्ध हो!...ध्यान रखना चाहिए कि कुछ लोग इसीलिए नेतृत्व में आना चाहते हैं कि व्यवस्था से तालमेल कर उसी में डूबें-उतराएं!....'नेतागीरी' नेतृत्व के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला एक नकारात्मक और गर्हित शब्द है, कोई ज़िम्मेदारी नहीं!...साथी हमारा नेतृत्व करता है तो सम्मान का पात्र होता है, नेतागीरी करता है तो घृणा का पात्र बनता है! 🔴

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