कबिरा खड़ा बजार में...
अच्छा नहीं लगता, पर सवाल तो है! सारे लोगों के दिमाग में यह सवाल उठना चाहिए कि जिस व्यक्ति के माँ-बाप का भी ठीक से पता नहीं, जो स्वयं 'मसि कागद छुयो नहीं कलम गह्यो नहीं हाथ'...का उद्घोष करता हो, वह भी उस मध्यकाल में जब राजाओं-सामन्तों का हुक्म ही कानून माना जाता था, ऐसे समय में एक व्यक्ति समाज की रूढ़ियों पर ही नहीं धर्म-मजहब पर भी ऐसा कठोर प्रहार कैसे कर लेता है?
तब मानवतावाद का न तो कोई ढिंढोरा पीटा जाता था और न ऐसा कोई नाम कमाने के लिए करता था, तब की उस अंधेरी दुनिया में जब जाति और धर्म आज की तरह राजनीति के दुमछल्ले न होकर समाज के अपने नियमों से चलने वाले थे...कैसे एक व्यक्ति इतना आदरणीय हो सकता है जो दोनों को उल्टा खड़ा कर दे? या यह सब इसीलिए कि आज मानवतावादी सोच विकसित हुई है, इसीलिए कबीर की रचनाओं को भी महत्त्व मिलने लगा है? लेकिन, अगर इतना ही मानवतावादी मूल्यों की समाज में मान्यता है तो फिर ये 'मॉब-लिंचिंग', जातिवादी-साम्प्रदायिक दंगे कैसे? क्या मानवतावाद का ढिंढोरा पीटना और किसी धर्म-सम्प्रदाय के नाम पर किसी का घर स्वाहा कर देना, सैकड़ों की जान ले-लेना दोनों एक साथ चल सकता है?...पर आज तो ऐसा हो रहा है! क्या दोनों प्रवृत्तियों को कोई राजनीतिक या सामाजिक सोच चलाती है?
ऐसा नहीं कि कबीर ने तथाकथित हिन्दुओं के ढकोसलाचार पर ही सवाल उठाया, मुसलमानों को भी नहीं बख्शा है। 'कांकर पाथर जोड़ि के मस्जिद लई चिनाय/ता चढ़ मुल्ला बांग दे बहरा हुआ खुदाय!' -कहना आज भी प्रगतिशील और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष कहलाने वाले लोगों के लिए भी कितना कठिन है! और मन्दिर?...मन्दिर के 'पाहन'(पत्थर) का ऐसा उपहास करने की आज भी कोई हिम्मत कर सकता है?-
"पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूँ पहार।
ताते यह चाकी भली पीस खाय संसार।।"
लेकिन कबीर साहब, यह 'राम नाम का मरम है आना'...का जमाना नहीं रहा। 'राम' को 'दसरथ सुत' ही होना होगा। आपके 'राम' रहे होंगे, जो रहे होंगे! आज तो राजनीति की उंगली पकड़ कर ही वे स्थापित होते देखे जा रहे हैं!
तो कबीर साहब, आपका जमाना तो सुनते हैं बड़ा मार-काट वाला जमाना था! कैसे बच गए? ऐसी दृढ़ता कहाँ से पाई:
"अरे इन दोउन राह न पाई।
हिन्दू अपनी करे बड़ाई गागर छुवन न देई।
बेस्या के पायन तर सोवे यह देखो हिन्दुआई।।
मुसलमान के पीर औलिया मुरगी मुर्गा खाई।
खाला केरी बेटी ब्याहैं घरहिं मा करैं सगाई।।..."
लेकिन असली कबीर यही हैं। दुनिया को ठोकर मारकर भी दुनिया के 'साहब'! मूढताएँ इतनी अभी समाज में कि उसे बताने के लिए कबीर की 'बानी' ही सबसे उपयुक्त लगती है:
" साधो देखो जग बौराना।
साँच कहौं तो मारन धावे झूठ कहे पतियाना।।..."
कबीर ऐसे ही थे कि सदियां बीत जाने और इतना विकास हो जाने, सच-झूठ का पता लग जाने के बाद भी आज भी कबीर होना, उनके विचारों को व्यवहार में स्वीकार करना आसान नहीं!
शायद इसीलिए कबीर अपने समझने वालों, मानने वालों के लिए इतने आदरणीय हैं। कबीर आज भी 'बाज़ार' में 'लुकाठा' लेकर खड़े होने का साहस जो देते हैं!
★★★★★★★★
Very nice👍
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