मार्क्स जन्म-दिवस, 5 मई:
कार्ल मार्क्स और
कार्ल मार्क्स और
मार्क्सवाद की दुनिया को देन
दुनिया के सामाजिक-आर्थिक जीवन को अब तक के इतिहास में सर्वाधिक प्रभावित करने वाले कार्ल हेनरिख मार्क्स का जन्म 5 मई, 1818 को जर्मनी के ट्रेवेश (प्रशा) नगर में हुआ था। उनका परिवार यहूदी धर्म को मानने वाला था। बाद में सन 1824 में इस परिवार ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया। आर्थिक अभावों से गुजरते हुए मार्क्स ने वर्ग-विषमता और वर्ग-संघर्ष के सूत्र विकसित कर शोषित-पीड़ित दुनिया की आम जनता की मुक्ति का वैज्ञानिक रास्ता दिया। यह दिखाया कि न तो दुनिया हमेशा ऐसी ही रही है, न आगे भी ऐसी ही रहने वाली है। मनुष्य ने अपने संघर्षों से इस दुनिया को यदि बेहतर से बेहतर बनाया है तो अपनी ज़िंदगी के लिए भी मुक्ति के द्वार खोले हैं। जिस तरह डार्विन ने जैव प्रकृति में विकास के नियम का पता लगाया था, वैसे ही मानव-इतिहास में मार्क्स ने विकास के नियम का पता लगाया था। इस नियम ने ऐतिहासिक द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का जो सूत्र सर्वहारा के हाथ में थमाया उससे युगों युगों की जड़ता तोड़ने में वह सफल हुआ।
पूरी दुनिया का शासकवर्ग आज या तो मार्क्सवाद को एक फेल विचारधारा मानता है या मार्क्सवाद की अपनी पूंजीवादी व्याख्या को सही मानता है। यहाँ तक कि तथाकथित 'समाजवादी' सरकारों द्वारा भी अपने 'सुधार' कार्यक्रमों और तत्सम्बन्धी नीतियों को इस तरह निर्मित किया जा रहा है कि वह जनता को देखने में तो समाजवादी लगे किन्तु वास्तविक रूप में पूँजीवादी ढर्रे पर ही चले। जब मार्क्सवादी समाजवाद के अकाट्य तर्कों को व्यवस्थाएं खण्डित न कर सकीं और जनता का इस विचारधारा पर विश्वास दृढ़तर होता गया तो शासकों ने यह छद्मनीति अपनाकर जनता को भ्रमित कर मार्क्सवाद से दूर करने का प्रयास किया। यह प्रयास आज और तेज हो गया है। लेकिन जैसे-जैसे पूँजीवादी विचारधारा का संकट बढ़ता जा रहा है और उसका साम्राज्यवादी स्वरूप भी इस संकट को हल करने में बुरी तरह विफल हो रहा है, वैसे-वैसे पूँजीवादी सत्ता को बचाने की कोशिशें तेज हो रही हैं। किन्तु
साम्राज्यवादी अवस्था उस अंधी गली में पहुँच चुकी है जहाँ उसका खात्मा तो निश्चित है ही, गेहूँ के साथ घुन की तरह जनता को भी इस व्यवस्था में पिसना ही है। पूँजीवादी सत्ताएं और उनके विभिन्न अवयव जनता को गेहूँ बनाने और स्वयं इससे बचा लेने की कोशिश में लगे हैं! लेकिन जनता के बीच घुन वहीं हैं और जैसा कि इतिहास ने यह सिद्ध किया कि जनता ही अपराजेय होती है, शासक और उनकी लूट दोनों स्थायी नहीं रह सकते। बड़े-बड़े राजे-रजवाड़े जनता की अदम्य शक्ति के सामने धराशायी हो गए।
हम देख रहे हैं कि पूँजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्थाएं लोकतंत्र का मुखौटा ओढ़कर आज पूरी दुनिया के प्राकृतिक संसाधनों, बाज़ारों और श्रमशक्ति पर कब्ज़ा करने की होड़ में लगी हुई हैं। कोरोना जैसी महामारी में भी उनके बढ़ते मुनाफ़े के कारण उत्पीड़ित जनता में यह समझ भी पैदा होने लगी है कि कहीं यह इन्हीं पूंजीपतियों की कोई कुत्सित चाल तो नहीं? पूंजीपतियों ने बहुराष्ट्रीय/पारराष्ट्रीय कम्पनियां बनाकर जिस तरह लूट को अब तक अंजाम दिया है उन पर अविश्वास एक स्वाभाविक प्रक्रिया लगता है। स्वयं की कम से कम क्षति का इंतज़ाम कर शासक शक्तियों ने लूट में जो हिस्सेदारी व्यवस्था बनाई है उससे जनता से उनके अंतर्विरोध लगातार बढ़ते जा रहे हैं। वे इनका सामना करने के पहले से बने-बनाए नुस्खों जैसे फासीवाद, नस्लवाद, साम्प्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रवाद आदि के अलावा व्यापक पैमाने पर छद्मयुद्ध का भी इस्तेमाल कर रही हैं। मध्य-एशिया-यूरोप में तो प्राकृतिक संसाधनों पर कब्ज़ा करने के भयानक जनसंहारक युद्ध लगातार चल रहे हैं। यही नहीं, कब्ज़ा करने की इस होड़ में वे आपस में अप्रत्यक्ष लड़ाई में उतरी हुई हैं। ऐसे में एक और विश्वयुद्ध का खतरा दुनिया पर लगातार मंडरा रहा है।
दुनिया के सामाजिक-आर्थिक जीवन को अब तक के इतिहास में सर्वाधिक प्रभावित करने वाले कार्ल हेनरिख मार्क्स का जन्म 5 मई, 1818 को जर्मनी के ट्रेवेश (प्रशा) नगर में हुआ था। उनका परिवार यहूदी धर्म को मानने वाला था। बाद में सन 1824 में इस परिवार ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया। आर्थिक अभावों से गुजरते हुए मार्क्स ने वर्ग-विषमता और वर्ग-संघर्ष के सूत्र विकसित कर शोषित-पीड़ित दुनिया की आम जनता की मुक्ति का वैज्ञानिक रास्ता दिया। यह दिखाया कि न तो दुनिया हमेशा ऐसी ही रही है, न आगे भी ऐसी ही रहने वाली है। मनुष्य ने अपने संघर्षों से इस दुनिया को यदि बेहतर से बेहतर बनाया है तो अपनी ज़िंदगी के लिए भी मुक्ति के द्वार खोले हैं। जिस तरह डार्विन ने जैव प्रकृति में विकास के नियम का पता लगाया था, वैसे ही मानव-इतिहास में मार्क्स ने विकास के नियम का पता लगाया था। इस नियम ने ऐतिहासिक द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का जो सूत्र सर्वहारा के हाथ में थमाया उससे युगों युगों की जड़ता तोड़ने में वह सफल हुआ।
पूरी दुनिया का शासकवर्ग आज या तो मार्क्सवाद को एक फेल विचारधारा मानता है या मार्क्सवाद की अपनी पूंजीवादी व्याख्या को सही मानता है। यहाँ तक कि तथाकथित 'समाजवादी' सरकारों द्वारा भी अपने 'सुधार' कार्यक्रमों और तत्सम्बन्धी नीतियों को इस तरह निर्मित किया जा रहा है कि वह जनता को देखने में तो समाजवादी लगे किन्तु वास्तविक रूप में पूँजीवादी ढर्रे पर ही चले। जब मार्क्सवादी समाजवाद के अकाट्य तर्कों को व्यवस्थाएं खण्डित न कर सकीं और जनता का इस विचारधारा पर विश्वास दृढ़तर होता गया तो शासकों ने यह छद्मनीति अपनाकर जनता को भ्रमित कर मार्क्सवाद से दूर करने का प्रयास किया। यह प्रयास आज और तेज हो गया है। लेकिन जैसे-जैसे पूँजीवादी विचारधारा का संकट बढ़ता जा रहा है और उसका साम्राज्यवादी स्वरूप भी इस संकट को हल करने में बुरी तरह विफल हो रहा है, वैसे-वैसे पूँजीवादी सत्ता को बचाने की कोशिशें तेज हो रही हैं। किन्तु
साम्राज्यवादी अवस्था उस अंधी गली में पहुँच चुकी है जहाँ उसका खात्मा तो निश्चित है ही, गेहूँ के साथ घुन की तरह जनता को भी इस व्यवस्था में पिसना ही है। पूँजीवादी सत्ताएं और उनके विभिन्न अवयव जनता को गेहूँ बनाने और स्वयं इससे बचा लेने की कोशिश में लगे हैं! लेकिन जनता के बीच घुन वहीं हैं और जैसा कि इतिहास ने यह सिद्ध किया कि जनता ही अपराजेय होती है, शासक और उनकी लूट दोनों स्थायी नहीं रह सकते। बड़े-बड़े राजे-रजवाड़े जनता की अदम्य शक्ति के सामने धराशायी हो गए।
हम देख रहे हैं कि पूँजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्थाएं लोकतंत्र का मुखौटा ओढ़कर आज पूरी दुनिया के प्राकृतिक संसाधनों, बाज़ारों और श्रमशक्ति पर कब्ज़ा करने की होड़ में लगी हुई हैं। कोरोना जैसी महामारी में भी उनके बढ़ते मुनाफ़े के कारण उत्पीड़ित जनता में यह समझ भी पैदा होने लगी है कि कहीं यह इन्हीं पूंजीपतियों की कोई कुत्सित चाल तो नहीं? पूंजीपतियों ने बहुराष्ट्रीय/पारराष्ट्रीय कम्पनियां बनाकर जिस तरह लूट को अब तक अंजाम दिया है उन पर अविश्वास एक स्वाभाविक प्रक्रिया लगता है। स्वयं की कम से कम क्षति का इंतज़ाम कर शासक शक्तियों ने लूट में जो हिस्सेदारी व्यवस्था बनाई है उससे जनता से उनके अंतर्विरोध लगातार बढ़ते जा रहे हैं। वे इनका सामना करने के पहले से बने-बनाए नुस्खों जैसे फासीवाद, नस्लवाद, साम्प्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रवाद आदि के अलावा व्यापक पैमाने पर छद्मयुद्ध का भी इस्तेमाल कर रही हैं। मध्य-एशिया-यूरोप में तो प्राकृतिक संसाधनों पर कब्ज़ा करने के भयानक जनसंहारक युद्ध लगातार चल रहे हैं। यही नहीं, कब्ज़ा करने की इस होड़ में वे आपस में अप्रत्यक्ष लड़ाई में उतरी हुई हैं। ऐसे में एक और विश्वयुद्ध का खतरा दुनिया पर लगातार मंडरा रहा है।
इन स्थितियों में दुनिया के पास मार्क्सवाद की विकसित विचारधारा के अलावा शांति का और कोई चारा नहीं। देखना यह है कि विश्व की व्यापक मानवतावादी शक्तियां कितनी जल्दी संगठित होती और दुनिया को जन-संहारों और लूट से बचाती हैं। शासकों से कोई भी उम्मीद व्यर्थ है क्योंकि वे अपने वर्ग-स्वार्थों से बंधे हैं।...
कार्ल मार्क्स और मार्क्सवाद को इसी व्यापक परिप्रेक्ष्य में समझने और व्यवहार में लाने की जरूरत है! दुनिया के लिए मार्क्स और मार्क्सवाद की यही सीख भी है।
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