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एक गाँव: अंधकार के देवताओं से संघर्ष की कहानी

                 लोकतंत्र के लिए तंत्र से लोक के  

                    एक संघर्ष की कथा

                  

सचमुच निराशा तो होती है!..जब शहीद भगत सिंह, महात्मा गांधी, जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया आदि की 'लोकतंत्र' की विचारधाराओं को धता बताते हुए एक ऐसी 'विचारधारा' सत्ता पर काबिज़ हो जाए जो न केवल इन सबकी विरोधी हो बल्कि जिसका लोकतंत्र पर ही भरोसा न हो! मानव-सभ्यता के विकास के तमाम सारे मानदंडों को जो न केवल अस्वीकार करती हो बल्कि जिसका आदर्श 'दासयुग' हो! जो राजा-प्रजा व्यवस्था को विद्यमान सभी व्यवस्थाओं से बेहतर मानती हो और 'रामराज्य' के नाम पर ऐसी व्यवस्था को स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील हो! वर्तमान सत्ताधारी दल की विचारधारा इसे 'हिन्दूराष्ट्र' के रूप में चिह्नित और प्रचारित करती है! क्या यह प्रतिक्रांति की कोई भूमिका है या क्रांतिकारी परिवर्तन की बाट जोह रहे संगठनों और लोगों की विचारधाराओं पर कुठाराघात है, उन पर एक सवाल है? 

या फिर यह इस दुर्व्यवस्था के ताबूत की आखिरी कील सिद्ध होने जा रही प्रतिक्रियावादियों की अंतिम कोशिश और किसी आसन्न क्रांति की सुगबुगाहट है क्योंकि दुनिया पीछे नहीं लौटनी?!!...

मानव-सभ्यता के विकास को पीछे ढकेलने के प्रयास के कई उदाहरण पिछले कुछ दशकों में देखने को मिले हैं, इराक-अफ़ग़ानिस्तन के पतन, रूस-यूक्रेन के आज के हालात कुछ ऐसा ही  तो कर रहे हैं! ...तो क्या विकास की अवधारणा ही गलत है यानी सब कुछ 'सनातन' है, शाश्वत है, 'सब्ब ऐसो ही चलैगो!'     

एक उदाहरण लीजिए!..एक शहर से सटा एक गाँव है- मात्र दो-तीन किलोमीटर दूर! यहाँ से कुछ ही दूरी पर विकास-पुरुष, लोकतंत्र के 'भगवान' लोग रहते हैं। सांसद, विधायक, जिलाधिकारी, मुख्य विकास अधिकारी, एसएसपी आदि इस गाँव के पास की सड़क से गुज़रते हुए जरूर इसे कभी न कभी निहारते होंगे। इसी तरह के गाँवों के विकास की नाम पर कई 'कोष', 'निधि' आदि बने हैं। लेकिन इस गाँव में साधारण सुविधाएँ भी नहीं हैं। गाँव के बीच से किसी घर को ढूँढते हुए बिना कीचड़ लगे आप नहीं पहुँच सकते। सालों पुरानी बनी हुईं नालियाँ कीचड़ और कीड़ों से बजबजा रही हैं। अनेक घर भी सीलन पैदा होने के चलते गिरासू हैं। कई गरीबों के घर बरसात में ढह भी चुके हैं। गाँव से शहर की तरफ जाने वाले रास्ते पर लगभग एक दशक पहले खड़ंजा बिछाया गया थ। जगह-जगह उसके टूट जाने के कारण इस तथाकथित सड़क में गड्ढे हो चुके हैं। इस तथाकथित सड़क से लगा एक पुराना तालाब है जिससे सटे बाग में कुछ साल पहले सुसज्जित कर सम्मान-समारोह और झंडारोहण के लिए तैयार किया गया था। अब इसके चारों ओर गोबर पाथा गया है। गोबर के कण्डों से घिरे इस तालाब और बाग के पास जाना एक दुःखद प्रयास होगा। यह सब एक तथाकथित ऐसे बड़े नेता की छत्रछाया में घटित हुआ है जिसके महलनुमा घर की कीमत लगा पाना आसान नहीं जिसके सामने उसका ही एक 5स्टार होटल बनकर तैयार होने वाला है। यह नेता तथाकथित उसी पिछड़े वर्ग से आता है जिसके निवासी इस गाँव में 'बहुसंख्यक' हैं।

      इसी गाँव के निवासी पिछले कुछ महीनों से 'विकास' की साधारण सी माँगों के लिए संघर्षरत हैं। चुने गए सांसद-विधायकों ने अभी तक गाँव के लोगों का आश्वासन के नाम पर मखौल उड़ाया है। कहा जाता है विधायक 4-5 लाख रुपये में प्रधान बनवाने, जितवाने का ठेका लेता है और जीत जाने पर प्रधान विकास योजना के कागजों पर अंगूठा-हस्ताक्षर लगाकर अपने लगाए गए पैसे मय-ब्याज के चक्कर में विधायक जी के यहाँ चक्कर लगाता है।

ऐसे ही गाँव की मरण-शांति में खलल पैदा करते हुए कुछ लोग उठ खड़े हुए। विकास के नारे लगाने लगे। कीचड़ और नालियों की बदबू सोशल मीडिया के माध्यम से आला अधिकारियों से लेकर सांसद-विधायक तक उनके गुर्गों के मार्फ़त पहुँचाने लगे।इससे कई दिन जनता के धीरज की परीक्षा लेते रहने के बाद कुछ छोटे अधिकारी गाँव में आए। धरना खत्म करवाने के लिए धमकी से लेकर कुछ लालच-प्रलोभन गाँव के नेताओं को देने लगे। आखिरकार कुछ काम होना, काम करने का दिखावा करना शुरू हुआ। देखना है, होता क्या है, कितना है? 

शहीद भगत सिंह ने लिखा था कि जब हम किसी संघर्ष में जाते हैं तो 100 पैसे में से 25 पैसे पर समझौते करने होते हैं। हम वे 25 पैसे जेब में रख बाकी 75 पैसों के लिए संघर्ष जारी रखते हैं। शासकों के खिलाफ होने वाले आंदोलनों की यह विशेषता है कि जनता को उन्हें झुकाना पड़ता है, तभी कुछ मिलता है। गाँव के लोग अपने इस मामूली सुविधा-विकास की माँग को कितना आगे बढ़ा पाते हैं, कितना विकास का अपना अधिकार छीन पाते हैं, यह भविष्य में है।

        किंतु लोकतंत्र कहे जाने वाले अपने देश के लिए क्या यह विचित्र बात नहीं है कि जो शासकों द्वारा अपने आप किया जाने वाला काम है, उनका कर्तव्य है, उसके लिए इतना लंबा संघर्ष करना पड़े?.. होना तो चाहिए तंत्र को लोक के अधीन, परन्तु वास्तविकता यह है कि लोक अधीन है तंत्र के! 'लोकतंत्र' को शासकों ने तंत्रलोक बना रखा है। वे अभी भी उसी अंग्रेजों की गुलाम बनाने वाली मानसिकता में जीते हैं और उसी को श्रेष्ठ मानते हैं। इसीलिए जनता को कष्ट भोगना पड़ता है। शायद लोक की तंत्र से लड़ाई अभी बाकी है सच्चा लोकतंत्र स्थापित करने के लिए!

                            ★★★★★★

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