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क्यों होते हैं यौन-हिंसा पर चुनिंदा विरोध-प्रदर्शन?..

               स्त्रियों के विरुद्ध बढ़ते अपराध                

      हत्या-बलात्कार के मुख्य कारण

                             ~ अशोक प्रकाश

कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज में एक ट्रेनी महिला डाक्टर से बलात्कार और हत्या के समाचारों ने पूरे देश को आंदोलित कर दिया। इस जघन्य अपराध के खिलाफ़ यह प्रतिक्रिया उचित भी थी और जरूरी भी। इसे निर्भया-2 भी कहा गया। हमारा पुरुषप्रधान समाज जिस तरह कुंठित जीवन जीता है, विशेषकर स्त्री और यौन-संबंधों के मामले में, वहाँ इस तरह के अपराध अब समाज की प्रकृति बन गए हैं। पश्चिमी देशों में अश्लीलता को लेकर स्यापा करने वाले तथाकथित 'सनातनी' अपने देश में ऐसे अपराधों के लिए भी 'पश्चिम की संस्कृति' को दोषी ठहराते देखे जा सकते हैं। लेकिन, दरअसल यह अपने समाज के अपराध को छुपाने की एक प्रवृत्ति है।

यौन अपराध छिपाने की इस प्रवृत्ति से यह खत्म होने या कम होने के बजाय और बढ़ती है। लेकिन समाज में ऐसी हिंसा की शिकार औरतों को जिस नज़रिए से देखा जाता है, उससे प्रायः ऐसी घटनाओं का दोषी उन पीड़ित महिलाओं को ही मान लिया जाता है। उनके कपड़े पहनने, देखने, चलने, उठने-बैठने के तरीकों को लांछित करते-करते उन्हें ही ऐसी हिंसा का जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है! 'यही ऐसी है..', इसकी करतूतें ही ऐसी थीं...' आदि की फब्तियों ने कितनी जीवित पीड़िताओं को आत्महत्या करने के लिए मजबूर किया होगा, इसे यह प्रत्यक्षदर्शी समाज ही जान-समझ सकता है।

यही कारण है कि एक के बाद दूसरे अपराध होते जाते हैं और हम पश्चिम को दोष देकर खुद को 'निष्पाप' सिद्ध करने की कोशिश करते रहते हैं। निर्भया के दरिंदों को फाँसी हो जाने के बाद भी ऐसी घटनाएँ कम होने के बजाय बढ़ती गई हैं, इसका कारण कोई और नहीं बल्कि और भी कुंठित होता जाता हमारा समाज ही है जो सच्चाई को जानने-देखने और उससे निपटने की कोशिश करने के बजाय उसे छुपाने और अपराध के कारणों को कहीं और ढूँढने का प्रयास करता है। उन पर पर्दा डालने की कोशिश करता है। 

लेकिन उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण के हमलों की इस अपरिहार्य परिणति का सम्बंध किसी विशेष धर्म या सम्प्रदाय जुड़ा मसला न होकर पूरे समाज और ऐसी परिस्थितियों में जी रहे कमोबेश सभी देशों की समस्या बन चुका है। यह आज एक ऐसा सार्वभौमिक तथ्य बन चुका है जिसका शिकार वे देश और समाज ज़्यादा हैं जहाँ कुण्ठा के पारंपरिक कारण ज़्यादा कटु हैं। विशेषकर दक्षिण एशिया के देशों में यौन-शिक्षा को जिस नज़र से देखा जाता है उसमें यौन-शिक्षा भी यौन-विकृति बनकर उभरती है। ऐसे-ऐसे घृणित मिथकों से इन देशों में यौन सम्बन्धों को उभारा जाता रहा है जिसका परिणाम अनिवार्यतः यौन हिंसा और अपराध ही होता है। बुजुर्गों द्वारा बच्चियों से बलात्कार या छेड़खानी और अप्राकृतिक यौन संबंध इन्हीं की परिणितियाँ हैं।


इसीलिए हम देखते हैं कि कठोरतम सजा दिए जाने के बावज़ूद निर्भया-कांड के बाद भी रेप होते रहे और रेप की जितनी भी घटनायें हुई उनमें अधिकांश में अपराध को छुपाने के लिए मरणोपरांत भी पीड़िता के साथ वहशीपन किया गया। इसका दूसरा अत्यंत दुःखद पहलू हमारी लचर कानून-व्यवस्था और उसके प्रति लोगों का अविश्वासपूर्ण नज़रिया है। लोगों को लगता है~ अरे, कुछ नहीं होगा, पैसे ले-देकर छूट जाएँगे या कुछ दिन जेलों में ही तो रह लेंगे! विशेषतः आर्थिक रूप से सम्पन्न और रसूखदार लोगों को ऐसे मामलों में प्रायः ऐसे ही छूट जाते देख यह धारणा और प्रबल हो जाती है। हम देखते भी हैं कि कई अपराधों में अपराधी के खिलाफ एफआईआर तक करने के लिए पीड़िता और उसके परिवार को सफलता नहीं मिलती, क्योंकि अपराधी समाज में एक उच्च स्थान पर होता है।


राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार 2016 में बलात्कारों का सालाना आंकड़ा 39,000 तक पहुँच गया था। एक अन्य सरकारी रिपोर्ट के अनुसार 2018 में वर्ष भर में हर 15 मिनट में एक बलात्कार रिपोर्ट किया जा रहा था। 2022 के आख़िरी साल में, जिसके लिए एनसीआरबी के आंकड़े उपलब्ध हैं, उसमें 31,000 से ज़्यादा मामले दर्ज़ किए गए। ये वे मामले हैं जो थाने तक रिपोर्ट के रुप में दर्ज हुए, बहुत से ऐसे मामले हैं जो सामाजिक दबाव के चलते पीड़िता के परिवार द्वारा दबा दिए जाते हैं या अन्य कारणों से दर्ज नहीं हो पाते।


यौन हिंसा और अपराध की एक अपेक्षाकृत नई प्रवृत्ति राजनीतिक दलों द्वारा ऐसी घटनाओं का इस्तेमाल करने की है। पश्चिम बंगाल राज्य में हुई आरजी कर मेडिकल कॉलेज की घटना ऐसी ही प्रवृत्ति का एक उदाहरण है। हम जानते हैं कि लगभग इसी समय देश के अनेक भागों~ उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, राजस्थान, बिहार आदि प्रांतों में ऐसी दुर्दांत घटनाएँ घटीं लेकिन उन्हें बहुत कम नोटिस लिया गया। या इस तरह प्रचार नहीं मिला। उत्तर प्रदेश में तो इसके पहले के कई केस इस तरह पेंडिंग पड़े हैं जिन्हें आम जनता की भाषा में 'ठंडे बस्ते में डाल देना' कहा जाता है। ऐसे ढीले-ढाले केस प्रायः राजनीतिक नेताओं से सम्बंधित रहे हैं जिन्हें कभी इस सत्ताधारी दल, कभी उस सत्ताधारी दल का वरदहस्त प्राप्त होता है। हम देखते हैं कि जहां विपक्ष ऐसी घटनाओं को अत्यधिक तूल देने में लगा रहता है तो सत्तापक्ष इन पर लीपापोती करने में जुटा रहता है। सत्ता बदलने पर भी यह प्रवृत्ति बरकरार रहती है। इसका खामियाजा न केवल पीड़ितों, पीड़ित परिवारों को उठाना पड़ता है बल्कि पूरे समाज पर इसका बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। एक अत्यंत बुरा संदेश यह जाता है कि 'सभी तो ऐसे हैं!'


ऐसे चुनिंदा विरोध समाज के निचले तबके पड़ बहुत बुरा असर डालते हैं। इसका परिणाम विशेषकर आर्थिक रूप से विपन्न परिवारों/पीड़ितों पर बहुत बुरा पड़ता है। इस धारणा पर प्रहार करना, ख़त्म करना बहुत जरूरी है। सदियों पुराने सामंती सोच की कुंठित सोच ऐसी प्रवृत्तियों और परिस्थितियों को खाद-पानी मुहैया कराती रहती है। इसलिए जड़ों पर प्रहार किए बिना मानवता के विरुद्ध ऐसे घृणिततम अपराध, नहीं लगता कि रुक जाएंगे!


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