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कृषि कर्म से कृषि-कृष्ण हैं!..

 कृषि-कृष्ण कथा -1:   

                    अंधेरे से संघर्ष में                    उम्मीद का उजाले

 

लगभग पाँच हजार साल पहले की बात है!...शायद उससे भी पहले की!


तब, सब जगह जंगल ही जंगल हुआ करता था!

घना जंगल, वैसा ही जैसा अबूझमाड़!..या उससे भी घना, उससे भी ज़्यादा अबूझ! शायद अमेज़न के अभेद्य जंगलों की तरह..! या शायद उससे भी ज़्यादा अभेद्य!


जंगल के बीच से नदियाँ बहते हुए निकलती थीं~

कल-कल निनादिनी नदियाँ!..भयावह नदियाँ!..तरह-तरह के विस्मयकारी प्राणियों वाली नदियाँ!


पूरा जंगल संगीतमय होता था। पक्षी ही नहीं, तरह-तरह की वनस्पतियाँ, पेड़-पौधे, कीट-पतंगे तरह की ध्वनियां निकालते, सब कुछ मिलकर संगीत बन जाता! जीवन का संगीत!


पक्षी, पशु इस प्राकृतिक अभयारण्य में निर्भय विचरण किया करते थे। चारागाह की कमी होने का सवाल ही नहीं था। पक्षियों, पशुओं और मनुष्यों के लिए जंगल न जाने कितने प्रकार के खाद्य, चूस्य, पेय रस प्रदान करता था। एक से बढ़कर एक स्वाद!  


संसार के सर्वोत्तम चरागाह में, जंगल में मंगल ही मंगल था! सब कुछ धीरे-धीरे प्राकृतिक रूप से चलता था, यही संसार था। मनुष्यों का भी, पशु-पक्षियों, जीव-जन्तुओं, चित्र-विचित्र वनस्पतियों- पौधों, फूलों, फलों का भी! यह हरा-भरा संसार था! यह ब्रज था, चरागाहों का स्वर्ग!


दिन को दिनकर, दिन-रात के भेद को बता देने वाला सूर्य जब निकलता तो चिड़ियों, पशु-पक्षियों के साथ मनुष्य भी प्रफुल्लित हो उठता! वह किसी का भोज्य या चूस्य नहीं बना, अभी जिंदा है, इससे बड़ी खुशी और क्या हो सकती है? यह जंगल शेर-बाघ, अजगर, साँप, तरह-तरह के विषधरों..सबका था! केवल मनुष्यों का नहीं था। सब एक-दूसरे पर निर्भर भी थे, शत्रु भी थे। वहाँ सब कुछ था!..प्रेम-भय, रुदन-हँसी, अट्टहास-चीत्कार!


प्रातः हुई! कोई गा उठा~ "ॐ ह्रीं ह्रीं सूर्याय सहस्रकिरणाय मनोवांछित फलम् देहि देहि स्वाहा...!" अ उ म् ~ ऊँ~ यह धरती, वह सूर्य, साथ में चंद्रमा! जीवन को प्रकाशित करने वाले, विशद बनाने वाले, सुखद बनाने वाले हैं ये-वो!...याद रखो इनका महत्त्व, इन सबका महत्त्व! वह आकाश, यह धरती और दोनों के मध्य मनुष्य, पशु-पक्षियों-वनस्पतियों का नाद-निनाद, समझो मनुष्यों! देखो!..आकाश में चमकता सूर्य अपनी हजारों किरणों से मनचाहे फल देता है, देता रहे~ ऐसी कामना करो! कहो कि 'ऐसा ही हो...ऐसा ही हो!..'


जब धरती पर अंधेरा इतना घना हो जाता है ~ 'इदमन्धनतम: कृत्स्नं जायेत भुवनत्रयं..' कि हाथ को हाथ नहीं सूझता, क्या तुम चिंता से नहीं भर उठते?...क्या वर्षा और बिजली की कड़क ध्वनियों से आहत सुरक्षित-निरापद स्थान खोजते सिंह, सर्पादि तुम्हारी गुफाओं में भी नहीं आ घुसेंगे?..फिर तुम्हारे बचे रहने की कितनी उम्मीद रहेगी घनघोर अंधेरे में? कामना करो मनुष्यों कि सूर्य जल्दी चमकें, उजाला जल्दी हो, तुम बचे रहो, तुम्हारे शिशु बचे रहें- प्रफुल्लित हो प्रातः नदियों की कल-कल, हवाओं की मर्मर ध्वनियों को पशु-पक्षियों, मनुष्यों के नाद-निनाद से मिला गा सको, गुनगुना सको! गाओ कि 'ऐसा ही हो...ऐसा ही हो!..'

~~ क्रमशः

★★★★★★


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