प्राथमिक शिक्षा के प्रति
उनका नकचढ़ापन!
- अशोक प्रकाश
- अशोक प्रकाश
प्राथमिक शिक्षा का जो हाल किया जा रहा है वह बाहर से कुछ और, भीतर से कुछ और है! बाहर से तो दिख रहा है कि शासक-लोग गरीब जनता को अंग्रेजी पढ़ाकर उन्हें बड़ी-बड़ी कम्पनियों में नौकरी के लिए तैयार कर रहे हैं, पर हक़ीक़त में उनसे उनकी पढ़ाई-लिखाई की रही-सही संभावनाएं भी छीनी जा रही हैं। एक तरफ पूरी दुनिया की भाषाओं में हिंदी भाषा की रचनाओं के अनुवाद किए जा रहे हैं, गूगल से लेकर तमाम सर्च इंजन और वेबसाइटों द्वारा दुनिया की मातृभाषाओं के अनुसार अपने को ढालने और लोगों तक पहुंचने की कोशिशें की जा रही हैं, दूसरी तरफ हमारे देश में प्राथमिक शिक्षा के स्तर से ही उनकी मातृभाषा छीनने की कोशिश हो रही है।...
इस क्रम में उत्तर प्रदेश के पिछले सालों में हिंदी माध्यम के प्राथमिक विद्यालयों को खत्म कर उन्हें अंग्रेजी माध्यम में रूपांतरित करने की कार्रवाई को देखा जा सकता है। सरकार ने कोई अतिरिक्त अंग्रेज़ी के विद्यालय नहीं खोले बल्कि थोड़ा बेहतर आधारभूत ढांचों वाले हिंदी माध्यम के विद्यालयों पर ही अंग्रेजी माध्यम का बोर्ड लगवा दिया। जिस भी अध्यापक के पास अंग्रेजी का कुछ भी लेबल लगा था, उसे अंग्रेज़ी में पारंगत मान इन विद्यालयों में ही लगा दिया। इस तरह बाकी निजी विद्यालयों के साथ-साथ परिषदीय विद्यालयों में भी अच्छे-बुरे की पहचान बना दी।
बात केवल मातृभाषा छीनने तक नहीं सीमित है! प्राथमिक स्तर के सरकारी या पंचायती विद्यालयों के अध्यापकों को इस तरह गैर-शिक्षकीय कार्यों में लगातार फंसाया जाता रहा है कि वे अपने मूल कार्य पर बिलकुल ध्यान न दे पाएं। ऊपर से खानापूरी करें और आंकड़ों में शिक्षा-व्यवस्था के तीर मार लेने की हवाई कथा लिखें। तथाकथित 'शिक्षा में शून्य-निवेश नवाचार' के बहाने शिक्षकों को अपनी तनख्वाह के पैसे लगाकर विद्यालयों की दशा न सुधारने पर उन्हें बेवक़ूफ़ सिद्ध करने की कोशिश की जाती है। साथ ही ऐसे शिक्षकों को जो अधिकारियों की चापलूसी कर सुविधाएं हासिल कर सकते हैं, उन्हें रोल मॉडल बनाया जाता है। ऐसे ही कुछ शिक्षक भ्रष्टाचार में भागीदारी के पैसों से विद्यालयों में रंगरोगन लगा पुरस्कार पाने की होड़ में देखें जाते हैं। ज़ाहिर है कि इससे शिक्षा का कोई वास्तविक भला नहीं होता। एक शिक्षक आलोक वर्मा आज़ाद द्वारा इस संदर्भ में सोशल मीडिया पर की गई टिप्पणी ध्यान देने लायक है :
"...सरकार ने आदेश निकाला कि हाउस होल्ड सर्वे करना है और आउट ऑफ़ स्कूल बच्चों को स्कूल में वापस लाया जाए...और ये आदेश हर साल आता है। ये काम हर साल लगभग जुलाई या अगस्त महीने में होता है। इस बार सरकार ने कुछ समय से पहले और थोड़ा सा अलग आदेश क्या दिया मेरे कुछ अति नवाचारी मास्टर बिना आदेश की मूल भावना को समझे मिनट दर मिनट #टैग लगा कर पोस्ट कर रहे हैं कि बेसिक के स्कूलों की गर्मीयों की छुट्टियां ख़त्म!... हद है, एक तो दिमाग़ न लगाया ऊपर से ऐसी ख़बर बार-बार पोस्ट करके लगता है ये वही करवा कर मानेंगे जो आज तक बेसिक के इतिहास में न हुआ!..."
आलोक वर्मा आगे लिखते हैं: "एक बाँदा के अति नवाचारी मास्टर मध्याह्न भोजन ग्रहण करने वाले बच्चों के हस्ताक्षर करवा कर सोशल मीडिया पर क्या डाले, सरकारी फ़रमान आ गया सभी लोगों को ऐसा करने का!मतलब सबसे अधिक चोर बेसिक के मास्टर ही हैं, और तो और पढ़ाई के सिवा सारा काम बेसिक के मास्टर ही कर रहें हैं!...अगर किसी विद्यालय में 150 बच्चे हों तो उनकी साइन करवाने में १ घंटे से कम नही लगने वाला! एक साइन करेगा तो चार पानी पीने जाएँगे!..वो चार वापस आए नहीं कि ४ १/२ नम्बर गये। एसी के बंद कमरों से सिर्फ़ आदेश आते हैं! बाक़ी जब २०० रुपए में गुणवत्ता वाला स्वेटर पूरी सरकार न दे पाई तब दिया किसने ?? बेसिक के मास्टर ने ही न?
...ख़ैर बेसिक के मास्टर वो भी नवाचारी मास्टर वो कहावत ख़ुद ही अपने ऊपर सही साबित कर रहे... वो है न #अपने पैर पर ख़ुद कुल्हाड़ी मारना!..."
इस तरह के नए-नए प्रयोग रोज़ प्राथमिक शिक्षा पर थोपे जा रहे हैं। इनसे एक तरफ स्थाई सरकारी नौकरियों की संभावनाएं खत्म की जा रही हैं, उन्हें सीमित किया जा रहा है, दूसरी तरफ देशी-विदेशी कम्पनियों में ही नौकरी को एकमात्र विकल्प के तौर पर पेश कर शासक वर्ग अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ रहा है। गरीबों की प्राथमिक शिक्षा के प्रति यह नज़रिया, यह नकचढ़ापन देश में वर्ग-विषमताओं को बढ़ाएगा। इससे जिस तरह के अंतर्विरोध विकसित होंगे, वह जनता के कष्ट बढ़ाने के साथ-साथ शासकों के लिए भी मुसीबत खड़ी करेंगे!
★★★★★★★
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