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किसान आंदोलन: क्या, क्यों?

            https://youtu.be/34rJDc2NoFg             किसान आंदोलन: क्या, क्यों, क्यों नहीं! #दिल्ली #किसान #आंदोलन एक निर्णायक मोड़ पर है। केवल किसानों के लिए नहीं, पूरे #देश के लिए! #सत्ता प्रतिष्ठान जिसमें भू-माफिया, वैध-अवैध रूप से सैकड़ों एकड़ जमीन पर काबिज़ नए-पुराने जमींदार, देशी-विदेशी #बहुराष्ट्रीय कंपनियां, #राजनेता, #नौकरशाह, दलाल-ठेकेदार आदि अनेक #गिद्ध हैं- किसानों की #जमीन का #सौदा कर रहे हैं। #मुनाफा शब्द छोटा है, वे 'कर लो दुनिया मुट्ठी में' के नारे के साथ सब कुछ छीन लेने पर आमादा हैं!... किसान क्या करे?...#देश_की_रीढ़ होने के बावज़ूद वह इनके पूँजीबल-बाहुबल के आगे बेबस है। इसी का जवाब है- वर्तमान #किसान_आंदोलन! यह आंदोलन एक आम किसान, आम व्यक्ति का है!...यहाँ नाम से बड़ा विचार है। यह विचार #किसान_की _आत्मा की अभिव्यक्ति है!..कमजोर सही, दृढ़ है, संकल्पयुक्त है। इसने बड़े-बड़े राजाओं-महाराजाओं को उखाड़ फेंका है!                                ★★★★★★★

रोज़गार की तलाश में...

                                        ऐसे बस गया                                     रसगुल्ला-नगर! रोज़गार की तलाश में लोग क्या-क्या नहीं कर जाते हैं?... जब से #पकौड़ा_रोजगार का जुमला उछला है, लोग मान गए हैं कि उनके सामने #आत्मनिर्भर होने के अलावा आजीविका का और कोई सहारा नहीं! अब इस हाई-वे के किनारे बसे रसगुल्ला नगर को ही देखिए! इसका इससे बेहतर नाम कुछ और नहीं सूझता। कोई और मिठाई नहीं, बस रसगुल्ले ही रसगुल्ले!..इन सभी दुकानों में! हाई-वे के दोनों तरफ। हाई-वे पर आते जाते लोगों/ ग्राहकों को बरबस अपनी ओर खींच लेती ये रसगुल्लों की दुकानें आजीविका चलाने का एक और नज़रिया हैं! सब के सब अपनी तरफ़ से बेहतर से बेहतर रसगुल्ले बनाने की कोशिश करते हैं ताकि आने-जाने वाले ग्राहक पक्के हो जाएं। इलाहाबाद के दक्षिण में चित्रकूट हाई-वे पर एक छोटे से कस्बे घूरपुर के पास बसे-बसते इस रसगुल्ला नगर की कहानी पुरानी नहीं है। पहले जब यहाँ हाई-वे नहीं एक साधारण सी सड़क हुआ करती थी। रेलवे क्रॉसिंग के पास एक छोटी सी गुमटी में एक सज्जन रसगुल्ले सजाते और आने जाने वालों को दोने में रखकर रसगुल्ले बेचते थे। क्रॉसिंग पर कोई

अस्सी पार पिता: तीन कविताएँ

                                                अस्सी पार पिता                     एक: पिता जब अस्सी साल के हुए लड़के से बोले- मैं अब ज़्यादा दिन नहीं रहूँगा... दो बातें गाँठ बाँध ले- पहली बात: घर में लाठी जरूर रखना जानवर जानवर ही होते हैं, उन्हें इंसान मत समझना... व्यर्थ मत मारना लेकिन वक़्त आ पड़े तो मत छोड़ना! दूसरी बात: बंदूक और लाठी में ज़्यादा फर्क़ मत समझना दोनों से जानवर ही नहीं इंसान की भी जान जा सकती है फर्क़ सिर्फ़ इस बात में है... कौन चला रहा है, कैसे चला रहा है, किसके लिए चला रहा है? किराये पर लाठी या बंदूक चलाने वाले हमेशा कमजोर होते हैं, उनकी ताक़त पर भरोसा मत करना! दो: पिता उस पेड़ जैसे ही हैं!... पेड़ अस्सी साल पुराना था उसे लगने लगा था कि किसी भी तेज अंधड़ में वह धराशायी हो जाएगा... टहनियाँ बोलीं ऐसे भी निराश मत होओ तुमने हजारों जीवनदान दिए हैं तुम्हारे बीज हजारों मील तक फैले हैं, उनमें भी तुम हो... पेड़ को लगा सचमुच, मैं और क्या कर सकता था! लोगों ने आश्चर्य से देखा- पेड़ के भीतर से निकल रहे हैं अनगिनत पेड़ हाथ हिलाती निकल रहीं हैं टहनियाँ फूट रही हैं मुस्कराती कोंपलें हरे होने लगे ह

कुछ अलग थी इस बार- गांधी जयंती, शास्त्री जयंती

गांधी-शास्त्री जयंती:                                                                    अलग थी इस बार              महात्मा गाँधी और लाल बहादुर शास्त्री की जयंती! इस बार गाँधी जयंती कुछ अलग थी।... यूँ कहें तो ज़्यादा ठीक होगा कि इस बार गाँधी जयंती उत्सव मनाने वाली, औपचारिकता निभाने वाली न थी!...  लोगों ने इस बार महात्मा गांधी की प्रतिमाओं पर सिर्फ़ फूल और मालाएँ ही नहीं चढ़ाईं, अपने हृदय के आँसुओं से उन्हें धोया भी! इस बार पता नहीं क्या कुछ अलग था गाँधीजी की प्रतिमाओं में कि लोगों को लगा कि यह महात्मा उपाधिधारी प्रतिमा बोल पड़ती तो कितना अच्छा होता! शायद अब असहाय से होने लगे हैं लोग!...उन्हें अपने पर भी विश्वास नहीं रहा, न उन धरना-प्रदर्शनों पर...जिन्हें इस बार गाँधी जयंती पर लोगों ने ज़्यादा किए! इस बार गाँधी जयंती पर कुछ दलों/संगठनों ने मौनव्रत रखने में ही अपनी भलाई समझी!..शायद उनके मन में रहा होगा- किसे सुनाएँ?...कौन सुनेगा?? लेकिन कुछ अन्य संगठनों ने अपनी व्यथा सुनाई!...अपने दर्दे-ग़म का इज़हार किया!.. गाँधी जयंती पर उठीं आवाज़ों में इस बार बच्चियों/महिलाओं पर बलात्कार और हत

#बलात्कार क्यों होते हैं?

नज़रिया:                  बलात्कार और यौन-हिंसा क्यों बढ़ रही है?.. जी, कोई सरल उत्तर नहीं है इसका!...लेकिन वह उत्तर तो नहीं है जो आम तौर पर दिया जाता है और जिसके लिए रोज फाँसी से लेकर अंग-विच्छेदन तक की आदिमयुगीन सलाह से सोशल मीडिया मनोरंजन करता रहता है!.. यह एक सामान्य बात है कि बिना कारण के कार्य नहीं होता। अगर बलात्कार, यौन-हिंसा, बेरोजगारी, अपराध बढ़ रहे हैं और इनमें कोई तारतम्यता है तो इनके कारणों में तारतम्यता होगी।                 एक उदाहरण से यह बात अच्छी तरह समझी जा सकती है। हम देखते हैं कि न केवल कमजोर सामाजिक-आर्थिक वर्गों के लोग इसके शिकार होते हैं बल्कि इनके अपराधी भी अधिकांश इन्हीं वर्गों से आते हैं!...क्यों? यही वह पेंच है जहाँ से न केवल इसके कारणों की पड़ताल की जा सकती है बल्कि इसकी रोकथाम के उपाय भी ढूँढे जा सकते हैं। हम देखते हैं कि शिकार अथवा शिकारी उच्च वर्ग के लोग अधिकांशतः इससे बचे होते हैं या इससे बच जाते हैं तो उसका कारण उनमें किसी ब्रह्मचर्य के तेज का होना न होकर अपनी ज़िंदगी के प्रति उनमें जागरुकता और चिंता है। किसी भी ऐसे अपराध में फँसने से होने वाले नफ़े-नुक़सान क

लोक संस्कृति : #मुखौटा #लोक_नृत्य

          लोक संस्कृति और लोक नृत्य: मुखौटा लोकनृत्य                     https://youtu.be/wXfDHjR00mM   देश के #लोकगीत और लोकनृत्य जनता की धरोहर हैं।  इन्हें बचाए रखना,  इन्हें प्रचारित-प्रसारित करना हम सबकी ज़िम्मेदारी है।  दरअसल, हमारे लोकजीवन और #लोक_संस्कृति को विकृत करने  ध्वस्त करने या फिर remix के नाम पर नष्ट कर देने की प्रक्रिया उदारीकरण-वैश्वीकरण की शुरुआत के साथ ही  पिछली शताब्दी में ही तेज हो गई थी...  ताकि विकसित होती उपभोक्ता-संस्कृति को आसानी से लोग स्वीकार कर लें।  हम देखते हैं कि यह कोशिश काफी हद तक सफल भी हो गई/रही हैं।... कैसे बचेगा हमारा #लोकजीवन, हमारी लोक-संस्कृति?  यह सवाल हम सबके सामने है। ... हमारी कोशिश होनी चाहिए कि जिस तरह भी हो, इसे बचाया जाए,  लोगों तक पहुँचाया जाए!...                                 ★★★★★

मैं चींटी हूँ

कविता:                                                      मैं चींटी हूँ...                                     - अशोक प्रकाश मैं चींटी हूँ मैंने कभी नहीं सोचा हाथी बन जाऊँ बड़े होने के घमंड से  फूलूँ, इतराऊँ! मैं छोटी हूँ घमंड आलस्य में कभी नहीं बैठी हूँ मैंने कभी नहीं चाहा मेरा काम कोई दूसरा करे मैं रानी बनी रहूँ दुनिया पर रौब जमाऊँ! तुम तो मनुष्य हो धरती के सर्वश्रेष्ठ प्राणी विकास से कम विनाश नहीं किया तुमने... कैसे मनुष्य हो? कुछ मनुष्यों को धरती रौंदने देते हो, चुप रहते हो क्यों सहते हो?... मैं तुम्हें क्या समझाऊँ! ★★★★★★★