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कुछ अलग थी इस बार- गांधी जयंती, शास्त्री जयंती

गांधी-शास्त्री जयंती:                                                                    अलग थी इस बार              महात्मा गाँधी और लाल बहादुर शास्त्री की जयंती! इस बार गाँधी जयंती कुछ अलग थी।... यूँ कहें तो ज़्यादा ठीक होगा कि इस बार गाँधी जयंती उत्सव मनाने वाली, औपचारिकता निभाने वाली न थी!...  लोगों ने इस बार महात्मा गांधी की प्रतिमाओं पर सिर्फ़ फूल और मालाएँ ही नहीं चढ़ाईं, अपने हृदय के आँसुओं से उन्हें धोया भी! इस बार पता नहीं क्या कुछ अलग था गाँधीजी की प्रतिमाओं में कि लोगों को लगा कि यह महात्मा उपाधिधारी प्रतिमा बोल पड़ती तो कितना अच्छा होता! शायद अब असहाय से होने लगे हैं लोग!...उन्हें अपने पर भी विश्वास नहीं रहा, न उन धरना-प्रदर्शनों पर...जिन्हें इस बार गाँधी जयंती पर लोगों ने ज़्यादा किए! इस बार गाँधी जयंती पर कुछ दलों/संगठनों ने मौनव्रत रखने में ही अपनी भलाई समझी!..शायद उनके मन में रहा होगा- किसे सुनाएँ?...कौन सुनेगा?? लेकिन कुछ अन्य संगठनों ने अपनी व्यथा सुनाई!...अपने दर्दे-ग़म का इज़हार किया!.. गाँधी जयंती पर उठीं आवाज़ों में इस बार बच्चियों/महिलाओं पर बलात्कार और हत

#बलात्कार क्यों होते हैं?

नज़रिया:                  बलात्कार और यौन-हिंसा क्यों बढ़ रही है?.. जी, कोई सरल उत्तर नहीं है इसका!...लेकिन वह उत्तर तो नहीं है जो आम तौर पर दिया जाता है और जिसके लिए रोज फाँसी से लेकर अंग-विच्छेदन तक की आदिमयुगीन सलाह से सोशल मीडिया मनोरंजन करता रहता है!.. यह एक सामान्य बात है कि बिना कारण के कार्य नहीं होता। अगर बलात्कार, यौन-हिंसा, बेरोजगारी, अपराध बढ़ रहे हैं और इनमें कोई तारतम्यता है तो इनके कारणों में तारतम्यता होगी।                 एक उदाहरण से यह बात अच्छी तरह समझी जा सकती है। हम देखते हैं कि न केवल कमजोर सामाजिक-आर्थिक वर्गों के लोग इसके शिकार होते हैं बल्कि इनके अपराधी भी अधिकांश इन्हीं वर्गों से आते हैं!...क्यों? यही वह पेंच है जहाँ से न केवल इसके कारणों की पड़ताल की जा सकती है बल्कि इसकी रोकथाम के उपाय भी ढूँढे जा सकते हैं। हम देखते हैं कि शिकार अथवा शिकारी उच्च वर्ग के लोग अधिकांशतः इससे बचे होते हैं या इससे बच जाते हैं तो उसका कारण उनमें किसी ब्रह्मचर्य के तेज का होना न होकर अपनी ज़िंदगी के प्रति उनमें जागरुकता और चिंता है। किसी भी ऐसे अपराध में फँसने से होने वाले नफ़े-नुक़सान क

लोक संस्कृति : #मुखौटा #लोक_नृत्य

          लोक संस्कृति और लोक नृत्य: मुखौटा लोकनृत्य                     https://youtu.be/wXfDHjR00mM   देश के #लोकगीत और लोकनृत्य जनता की धरोहर हैं।  इन्हें बचाए रखना,  इन्हें प्रचारित-प्रसारित करना हम सबकी ज़िम्मेदारी है।  दरअसल, हमारे लोकजीवन और #लोक_संस्कृति को विकृत करने  ध्वस्त करने या फिर remix के नाम पर नष्ट कर देने की प्रक्रिया उदारीकरण-वैश्वीकरण की शुरुआत के साथ ही  पिछली शताब्दी में ही तेज हो गई थी...  ताकि विकसित होती उपभोक्ता-संस्कृति को आसानी से लोग स्वीकार कर लें।  हम देखते हैं कि यह कोशिश काफी हद तक सफल भी हो गई/रही हैं।... कैसे बचेगा हमारा #लोकजीवन, हमारी लोक-संस्कृति?  यह सवाल हम सबके सामने है। ... हमारी कोशिश होनी चाहिए कि जिस तरह भी हो, इसे बचाया जाए,  लोगों तक पहुँचाया जाए!...                                 ★★★★★

मैं चींटी हूँ

कविता:                                                      मैं चींटी हूँ...                                     - अशोक प्रकाश मैं चींटी हूँ मैंने कभी नहीं सोचा हाथी बन जाऊँ बड़े होने के घमंड से  फूलूँ, इतराऊँ! मैं छोटी हूँ घमंड आलस्य में कभी नहीं बैठी हूँ मैंने कभी नहीं चाहा मेरा काम कोई दूसरा करे मैं रानी बनी रहूँ दुनिया पर रौब जमाऊँ! तुम तो मनुष्य हो धरती के सर्वश्रेष्ठ प्राणी विकास से कम विनाश नहीं किया तुमने... कैसे मनुष्य हो? कुछ मनुष्यों को धरती रौंदने देते हो, चुप रहते हो क्यों सहते हो?... मैं तुम्हें क्या समझाऊँ! ★★★★★★★

पण्डित जसराज: ख़्याल गायकी के सरताज़

                                      पण्डित जसराज:                   स्वामी हरिदास और तानसेन की परंपरा के                                      आधुनिक साधक अंग्रेज़ों का जमाना था। पूरे देश पर उनका क़ब्ज़ा था। सब जगह उन्हीं की तूती बोलती थी, लेकिन एक जगह ऐसी थी जहां अंग्रेजों की एक न चलती थी। वह जगह थी शास्त्रीय संगीत!...संस्कृत भाषा और साहित्य पर भी यूरोपीय उपनिवेशवादियों के समय में उनके कुछ विद्वानों ने अपनी धाक जमाने की कोशिश की, उसे मनोयोग से सीखा और उसमें निहित ज्ञान-विज्ञान का सदुपयोग किया किन्तु भारतीयों में उसके मिथकों, अंधविश्वासों और पाखण्डों को स्थापित किया। किन्तु शास्त्रीय संगीत पर उनका जोर ज़्यादा न चल सका, खासतौर पर गायकी पर!  पण्डित जसराज उस दौर की उपज थे जो राजनीतिक और सामाजिक तौर पर देश में आंदोलनों और विश्वयुद्ध की विभीषिकाओं का दौर था। उनकी उम्र केवल तीन-चार साल की थी जब उनके पिता पण्डित मोतीराम का निधन ही गया। 28 जनवरी 1930 को जन्मे पण्डित जसराज को यद्यपि अपने पिता के मेवाती संगीत घराने का वरदहस्त प्राप्त था, किन्तु एक पितृहीन बालक को वास्तव में तो अपना भविष्

आप ईमानदार हैं...

एक कविता और:                             आप ईमानदार हैं.. अच्छी बात है  आप ईमानदार हैं... इसीलिए आपके ज़ुकाम में अस्पताल में आपके इक्कीस तीमारदार हैं!... आपका धर्म ईमानदार है आपकी जाति ईमानदार है आपका गोत्र ईमानदार है आपकी पाँति ईमानदार है! ईमानदारी आपकी रगों में दौड़ती है जैसे खून के साथ दौड़ता है हीमोग्लोबिन- आपकी ईमानदारी कभी भ्रष्ट नहीं होती है!... हुज़ूर! आप हत्याएँ भी ईमानदारी से करवाते हैं, हत्याओं को विरोधियों का वध बताते हैं!...                             ★★■★★

प्राकृतिक देव: मूल खोजो, सत्य मिलेगा!

प्रकृति के देवता:                     महामृत्युञ्जय मंत्र   वैदिक मंत्र प्रायः प्राकृतिक देवताओं की स्तुतियों के मंत्र हैं। ऋषि जगत से प्राप्त ज्ञानार्जन द्वारा प्राकृतिक तत्त्वों से अपनी रक्षा की कामना करते हैं। इन प्राकृतिक तत्त्वों या देवताओं में वे अलौकिकता यानी दिव्यत्व का भी आभास करते हैं। वे इन भौतिक से आधिभौतिक, अलौकिक अपरंच आध्यात्मिक तत्त्वों को आत्मसात कर उनसे प्रेरणा लेने की कामना करते हैं। ऋषियों की इसी विशेषता के चलते उन्हें 'ऋषयः मन्त्र दृष्टारः' अर्थात् मन्त्रों की केवल रचना करने वाले नहीं, उन्हें देखने वाले, समझने या अनुभव करने वाले कहा गया है। ऋषियों द्वारा रचे गए ऐसे मन्त्रों में 'महामृत्युंजय' मन्त्र का बड़ा आदर है। इतना कि उनका 'जाप' करने से मृत्युभय से जीत जाने की कामना की गई है। मृत्युभय से इसी मुक्ति की कामना, जो कि एक प्राकृतिक कामना या इच्छा है, इस मंत्र को हिंदुओं का एक प्रमुख मंत्र माना गया है। ऐसा माना जाता है कि इसके जाप से मृत्युभय नहीं सताता, नहीं रह जाता! इसे 'त्रयम्बक मंत्र' (तीसरी आंख  अर्थात दिमाग खोलने वाला मंत्र)