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लोक संस्कृति : #मुखौटा #लोक_नृत्य

          लोक संस्कृति और लोक नृत्य: मुखौटा लोकनृत्य                     https://youtu.be/wXfDHjR00mM   देश के #लोकगीत और लोकनृत्य जनता की धरोहर हैं।  इन्हें बचाए रखना,  इन्हें प्रचारित-प्रसारित करना हम सबकी ज़िम्मेदारी है।  दरअसल, हमारे लोकजीवन और #लोक_संस्कृति को विकृत करने  ध्वस्त करने या फिर remix के नाम पर नष्ट कर देने की प्रक्रिया उदारीकरण-वैश्वीकरण की शुरुआत के साथ ही  पिछली शताब्दी में ही तेज हो गई थी...  ताकि विकसित होती उपभोक्ता-संस्कृति को आसानी से लोग स्वीकार कर लें।  हम देखते हैं कि यह कोशिश काफी हद तक सफल भी हो गई/रही हैं।... कैसे बचेगा हमारा #लोकजीवन, हमारी लोक-संस्कृति?  यह सवाल हम सबके सामने है। ... हमारी कोशिश होनी चाहिए कि जिस तरह भी हो, इसे बचाया जाए,  लोगों तक पहुँचाया जाए!...                                 ★★★★★

मैं चींटी हूँ

कविता:                                                      मैं चींटी हूँ...                                     - अशोक प्रकाश मैं चींटी हूँ मैंने कभी नहीं सोचा हाथी बन जाऊँ बड़े होने के घमंड से  फूलूँ, इतराऊँ! मैं छोटी हूँ घमंड आलस्य में कभी नहीं बैठी हूँ मैंने कभी नहीं चाहा मेरा काम कोई दूसरा करे मैं रानी बनी रहूँ दुनिया पर रौब जमाऊँ! तुम तो मनुष्य हो धरती के सर्वश्रेष्ठ प्राणी विकास से कम विनाश नहीं किया तुमने... कैसे मनुष्य हो? कुछ मनुष्यों को धरती रौंदने देते हो, चुप रहते हो क्यों सहते हो?... मैं तुम्हें क्या समझाऊँ! ★★★★★★★

पण्डित जसराज: ख़्याल गायकी के सरताज़

                                      पण्डित जसराज:                   स्वामी हरिदास और तानसेन की परंपरा के                                      आधुनिक साधक अंग्रेज़ों का जमाना था। पूरे देश पर उनका क़ब्ज़ा था। सब जगह उन्हीं की तूती बोलती थी, लेकिन एक जगह ऐसी थी जहां अंग्रेजों की एक न चलती थी। वह जगह थी शास्त्रीय संगीत!...संस्कृत भाषा और साहित्य पर भी यूरोपीय उपनिवेशवादियों के समय में उनके कुछ विद्वानों ने अपनी धाक जमाने की कोशिश की, उसे मनोयोग से सीखा और उसमें निहित ज्ञान-विज्ञान का सदुपयोग किया किन्तु भारतीयों में उसके मिथकों, अंधविश्वासों और पाखण्डों को स्थापित किया। किन्तु शास्त्रीय संगीत पर उनका जोर ज़्यादा न चल सका, खासतौर पर गायकी पर!  पण्डित जसराज उस दौर की उपज थे जो राजनीतिक और सामाजिक तौर पर देश में आंदोलनों और विश्वयुद्ध की विभीषिकाओं का दौर था। उनकी उम्र केवल तीन-चार साल की थी जब उनके पिता पण्डित मोतीराम का निधन ही गया। 28 जनवरी 1930 को जन्मे पण्डित जसराज को यद्यपि अपने पिता के मेवाती संगीत घराने का वरदहस्त प्राप्त था, किन्तु एक पितृहीन बालक को वास्तव में तो अपना भविष्

आप ईमानदार हैं...

एक कविता और:                             आप ईमानदार हैं.. अच्छी बात है  आप ईमानदार हैं... इसीलिए आपके ज़ुकाम में अस्पताल में आपके इक्कीस तीमारदार हैं!... आपका धर्म ईमानदार है आपकी जाति ईमानदार है आपका गोत्र ईमानदार है आपकी पाँति ईमानदार है! ईमानदारी आपकी रगों में दौड़ती है जैसे खून के साथ दौड़ता है हीमोग्लोबिन- आपकी ईमानदारी कभी भ्रष्ट नहीं होती है!... हुज़ूर! आप हत्याएँ भी ईमानदारी से करवाते हैं, हत्याओं को विरोधियों का वध बताते हैं!...                             ★★■★★

प्राकृतिक देव: मूल खोजो, सत्य मिलेगा!

प्रकृति के देवता:                     महामृत्युञ्जय मंत्र   वैदिक मंत्र प्रायः प्राकृतिक देवताओं की स्तुतियों के मंत्र हैं। ऋषि जगत से प्राप्त ज्ञानार्जन द्वारा प्राकृतिक तत्त्वों से अपनी रक्षा की कामना करते हैं। इन प्राकृतिक तत्त्वों या देवताओं में वे अलौकिकता यानी दिव्यत्व का भी आभास करते हैं। वे इन भौतिक से आधिभौतिक, अलौकिक अपरंच आध्यात्मिक तत्त्वों को आत्मसात कर उनसे प्रेरणा लेने की कामना करते हैं। ऋषियों की इसी विशेषता के चलते उन्हें 'ऋषयः मन्त्र दृष्टारः' अर्थात् मन्त्रों की केवल रचना करने वाले नहीं, उन्हें देखने वाले, समझने या अनुभव करने वाले कहा गया है। ऋषियों द्वारा रचे गए ऐसे मन्त्रों में 'महामृत्युंजय' मन्त्र का बड़ा आदर है। इतना कि उनका 'जाप' करने से मृत्युभय से जीत जाने की कामना की गई है। मृत्युभय से इसी मुक्ति की कामना, जो कि एक प्राकृतिक कामना या इच्छा है, इस मंत्र को हिंदुओं का एक प्रमुख मंत्र माना गया है। ऐसा माना जाता है कि इसके जाप से मृत्युभय नहीं सताता, नहीं रह जाता! इसे 'त्रयम्बक मंत्र' (तीसरी आंख  अर्थात दिमाग खोलने वाला मंत्र)

विकास_की_कहानी

                                                     'विकास' की कहानी हमारे आसपास कितना कुछ ऐसा घटित हो रहा जो नाक़ाबिले-बर्दाश्त है!...लेकिन इससे भी ज़्यादा बुरा है, किसी पीड़ित की बात न सुना जाना। कभी-कभी लगता है कि यह दुनिया बड़ी तेजी से पीछे लौट रही है। कितना पीछे, कहा नहीं जा सकता। एक भौतिकी के पीएचडी वगैरह डिग्री धारक प्रोफेसर साहब कह रहे थे कि वो डार्विन के विकास के सिद्धांत को नहीं मानते। नहीं मानते कि दुनिया क्रमशः विकसित हो रही है और पीछे नहीं लौटेगी!...वे मानते हैं कि 5000 साल पहले की दुनिया ज़्यादा विकसित थी। आप क्या कर लेंगे?...आप क्या कर सकते है जब यह मानने वाले करोड़ों में हों पृथ्वी शेषनाग के फन पर टिकी है? और भी मुश्किल तब है जब प्रोफेसर साहब सहित तमाम सारे लोग पृथ्वी और शेषनाग कथा पर विश्वास के साथ-साथ सभ्यता के विकास का आनंद उन लोगों से हजारों गुना ज़्यादा लेते हों जो यह मानते हैं कि मिथक-कथाएँ और कुछ भी हों, सभ्यता के विकास की कहानियां नहीं हैं!.. लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है। सभ्यता के विकास की पूँजीवादी अवधारणा। इस अवधारणा में शासक पूँजी यह चाहती

#Corona_Class: हिंदी निबन्ध-1

                              निबन्ध शब्द की व्याख्या और                        प्रारम्भिक (भारतेंदु युगीन) हिंदी निबन्ध 'निबन्ध' शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की मूल धातु 'बन्ध' में 'नि' उपसर्ग लगाकर दो प्रकार से मानी जाती है- 1. नि+बन्ध+ल्युट् - 'निबध्यते अस्मिन् इति अधिकरणे निबन्धम्' अर्थात् जिसमें विचार बांधा या गूंथा गया हो ऐसी रचना, 2. नि+बन्ध+घञ् - निश्चितार्थेन विषयम् अधिकृत बन्धनम् - अर्थात निश्चित तात्पर्य से विषय को विचारों की श्रृंखला में बांधना। यद्यपि 'निबन्ध' शब्द का प्रयोग बहुत पहले से होता रहा है, किन्तु वर्तमान काल में यह मुख्यतः अंग्रेजी के 'Essay' के अर्थों में प्रयुक्त होता है। आज हिंदी निबन्ध शब्द से तात्पर्य है- 'वह विचारपूर्ण लेख जिसमें किसी विषय का सम्यक विवेचन किया गया हो'(- 'बृहत् हिन्दी कोश' )। 'शब्द कल्पद्रुम' के अनुसार 'बद्धनातीति निबन्धनम्' अर्थात जिससे बन्ध जाएं वही निबन्ध है। ★'कुतार्किका ज्ञाननिवृत्तिहेतुः करिष्यते तस्यमया निबन्धः..' अर्थात कुतर्कों से ज्ञान की मुक्ति