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हम देश, हमारा देश

                               ऐसा नहीं होना चाहिए!...                      कभी नहीं और कहीं नहीं होना चाहिए!...                                ?! ?! ?! ?! ?! ?! ?!   लगता है जैसे कोई ललकार रहा हो! हिम्मत है तो आ- हमारा लगता है जैसे कोई ललकार रहा हो!...हिम्मत है तो आ- हमारा सामना कर!...  महाभारत का यह उद्धत-आह्वान-'युद्धं देहि!...' उन सबको पसंद है जो शेरदिल हैं और तमाम प्राणियों के साथ इंसानों को भी जैसे खा जाने में विश्वास करते हैं! 'वीरभोग्या बसुंधरा' सिद्धांत के ये हिमायती 'राजा राज करने के लिए पैदा होता, प्रजा सेवा करने के लिए' -में भी विश्वास करते हैं और इसमें भी कि 'अमीर-गरीब, ऊंच-नीच, अच्छे-बुरे सब ऊपर वाले के बनाए होते हैं... और इसमें भी कि अमीर, ऊंच, अच्छा होना उनका जन्मजात अधिकार है! तो मारे जाने वालों, तुम मारे जाने के लिए ही पैदा हुए थे!... ....और हे मृतकों के शवों पर रोने वालों और इनके मरने पर मातम मनाने वाले देशवासियों, तुम व्यर्थ चिंतित हो रहे हो!...देखो तो, इनकी तरह तुम भी मरे ही हुए हो! - कौन हैं वे लोग जो शांतिप्रिय मेरे दे

इतिहास बोलता है!...

                  ढिल्लिका से दिल्ली...                                       वाया गज़नी                                                           - संजीव सिंह …लोगों की पदचाप से इस विशाल परिसर की खामोशी टूट जाती है! बड़े-बड़े क्वार्टजाइट के प्रस्तर खंड सहम जाते हैं! अब उनमें कुछ भी नया देखने की ना तो चाह बची है और ना ही हिम्मत ... किसी अजनबी के आते ही प्राचीर के ऊपरी भाग में स्थित विशाल पत्थर एक दूसरे के साथ और दृढ़ता से मिल जाते हैं मानो इन नए आने वालों से घबरा रहे हो!...                  ...उन्हें नहीं पसंद कि कोई यहाँ आये! लेकिन लोग हैं कि आज भी इनको परेशान करते रहते हैं!... टूटी हुई शराब की बोतलें और उनके बिखरे हुए कांच के टुकड़े इसका प्रमाण हैं!... ये पत्थर तो अपनी बदनसीबी पर पहले से ही रो रहे हैं ... काल के बेरहम हाथों ने अगर सबसे ज्यादा किसी को छला है तो वो ये गूंगे और बहरे पत्थर हैं! ... जो भी आया उस ने इन को पददलित ही तो किया है!....इसीलिए ये पत्थर कुछ नया नहीं चाहते, ये खो जाना चाहते हैं- अपने उन खोये हुए खूबसूरत लम्हों में जब ये भी ज़िंदा थे! इन्होंने योगिनीपुरा को ढ

नरक की कहानियाँ:1

                                            दंपोली' से बचाओ!...                                                                    -अशोक प्रकाश                          उस दिन क्लास के सामने पहुंचते ही दो बच्चों को जूझते देख विनीता मैडम का दिमाग और खराब हो गया!...              दिमाग खराब करने के लिए विभाग ही क्या कम है!...जूते की क्लास-बालक-बालिका-नाप सहित फीती लगाकर बोरों में भरने के बाद एमडीएम का राशन लाने के लिए बुग्गी वाले से चिरौरी-विनती कर जैसे ही मैडम विनीता लौटीं, कक्षा चार के बच्चे धमचाचर मचाए थे। कोई कुछ कह रहा था, कोई कुछ। सब गड्डमड्ड। कक्षा दो की सकीना रोए जा रही थी। बबलू मैडम की कुर्ती पकड़कर कुछ बताने या शिकायत करने की जिद कर रहा था।  कक्षा तीन पूरा बाहर नल के पास एक-एक कर एक-दूसरे के कपड़े भिगो रहा था। दूसरे कमरे में देखा तो शिक्षामित्र बीना मैडम शायद अपने घर रोटी बनाने जा चुकी थीं।           तभी एमडीएम बनाने वाली शांती आकर खड़ी हो गई- 'मैडम, आज मैं एक हजार लिए बिना नहीं जाने वाली!...इतना तनख्वाह पाती हो एडवांस कैसे नहीं दे सकती।'... शांती को सम

एक क्रीमीलेयर का बयान:

                     ⚫      आरक्षण बनाम विरोध    ⚫                                                     - हर्ष बर्द्धन               मेरा बेटा इस बार बारहवीं में था और अब कम्पटीशन की तैयारी कर रहा है। क्योंकि अब हम क्रीमी लेयर में आते हैं, अतः वह अब आरक्षण का लाभ नहीं ले सकता। एक दिन मुझे उसने कटऑफ का अंतर दिखाया और वह भी आरक्षण-विरोधियों की ही भांति कुंठित हो गया। उसको मैने समझाया कि अगर वह ऊपर के 50 प्रतिशत में अपनी जगह नहीं बना सकता तो फिर कुछ और करने की जरूरत है और यह बात उसकी समझ में आ गयी और अब वह अच्छा कर रहा है।...                  मैने कुछ विश्लेषण किया है और पाया कि ज्यादातर लोग आरक्षण का विरोध तभी करते हैं जब उनके बच्चे बारहवीं में होते हैं और वह सारी सुविधाओं के बावजूद औसत ही होते हैं। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो आरक्षण का लाभ लेने के बावजूद समाज में अपने को फारवर्ड दिखाने के चक्कर में अपनों का विरोध करने लगते हैं।            रही बात फारवर्ड क्लास की तो वह यूँ ही फारवर्ड नहीं है! इस वर्ग ने ऐसा चक्कर चलाया है कि लोगों को समझ ही नहीं आता की हो क्या रहा है! जितना

बन्द, बाज़ार और बेरोजगार

                        तुम लड़ो-मरो, हम मजा लेंगे!...             पिछले कुछ दिनों में हमने उच्चतम न्यायालय के एक फैसले के नाम पर दो 'भारत बंद' के आह्वान और उनके परिणाम देखे। दोनों तथाकथित भारत-बंद की एक सामान्य विशेषता देखने को मिली. दोनों में 'जातीय विद्वेष' को हवा दी गई. एक-दूसरे अर्थात् दलित और तथाकथित सवर्ण जाति के लोगों ने एक-दूसरे का मजाक उड़ाया और अपनी-अपनी जातियों को महान बताया. 'द ग्रेट....-जाति' को स्वाभिमान के नाम पर उछालने में ख़ास तौर पर दलित-उत्पीड़न और विषमता की त्रासदी के मसले दब गए. बेरोजगारी के स्थान पर सिर्फ आरक्षण पर बहस शासकों को बहुत सुकून दिलाती होगी!            इन प्रदर्शनों में एक ने यदि दलित-उत्पीड़न को ही झूठ सिद्ध करने की नाकाम कोशिश की तो दूसरे ने ऐसा सिद्ध करने का प्रयास किया जैसे हर मंत्री-सन्त्री-अधिकारी दलित जाति का होने के नाते रोज उत्पीड़न का शिकार हो रहा हो और उसे रोज 'अनुसूचित जाति-जनजाति उत्पीड़न क़ानून' के तहत किसी न किसी सवर्ण के नाम रिपोर्ट कराने की जरूरत हो. हकीकत यही है कि दलित जातियां अभी भी न केवल भीषण व

मर्म-कथा

                                           त्रिशंकु                                                   - नज़्म सुभाष             शांतिपूर्ण चल रहे आंदोलन ने अंततः  रौद्र रूप धारण कर लिया । बीस लोग मारे गये हैं।  ये मारे गये लोग सवर्ण थे या दलित अथवा मात्र मनुष्य.... इसको लेकर पक्ष -विपक्ष में अफवाहों का बाजार गर्म है। जैसा तर्क वैसी फोटो!...कौन असली कौन नकली?...कुछ नहीं सूझता...सबकुछ गड्मड्ड है!          सैकड़ों दुकानें फूंक दी गयी हैं....जनजीवन अस्त-व्यस्त है।... स्कूल, अस्पताल, रेल,  बस सब कुछ  अराजकता की भेंट चढ़ चुके हैं। टीवी पर भोंपू लगातार यही चीख रहा है।         सोशल मीडिया भी उबल रहा है ।सबके अपने - अपने पक्ष और तर्क हैं ।             सवर्ण चीखता है -"आरक्षण संविधान के माथे पर कलंक है!... उसने प्रतिभाओं का गला घोंट दिया।"             दलित उन्हीं के लहजे में जवाब देता है- " आरक्षण की जरूरत क्यों पड़ी? पहले इस पर बात कर!... सदियों से सवर्णों ने दलितों को दबाये रखा तब कितनी  प्रतिभाओं का गला घोंटा गया..... याद है?  मात्र 70 सालों में ही प्रतिभाओं का घों

अंग्रेज़ी बनाम हिंदी

                                 लड़ोगे तो जीतोगे!           अंग्रेज़ी वैश्विक-आर्थिक-आक्रमण या वैश्वीकरण की भाषा है, जबकि हिंदी सिर्फ़ भारत के एक(बड़े)क्षेत्र की भाषा! दोनों की तुलना ठीक नहीं!...     ....देश के बाहर ही नहीं, देश के अंदर भी हिंदी लिखने-बोलने-पढ़ने वालों की इज़्ज़त और पैसा यानी रोज़गार मिलता है। किंतु यह केवल भाषायी ग़ुलामी नहीं है। यह वास्तविक गुलामी का द्योतक है। .....देश की भाषाओं के अस्तित्व का संघर्ष अनिवार्यतः इस गुलामी (मुख्यतः आर्थिक) से मुक्ति का संघर्ष है! लड़ोगे तो जीतोगे वरना ऐसे ही सड़ोगे!         हिंदी भाषियों के सामने यह चुनौती सबसे बड़ी है...क्योंकि उन्हीं को सबसे कम अंग्रेज़ी आती है! और यह अच्छी और सकारात्मक बात है। बड़े क्षेत्र के लोगों को रोज़गार नहीं मिल रहा! मिलने की संभावनाएं और क्षीण होती जा रही हैं। उन्हें रोज़गार के लिए लड़ना पड़ रहा है। यह लड़ाई एक भाषायी और सांस्कृतिक लड़ाई भी है। दरअसल, यह गुलामी के खिलाफ़ लड़ाई है।           लड़ोगे तो जीतोगे, नहीं तो ऐसे ही सड़ोगे!  ★★★