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चलो बनाएँ बागेश्वर धाम!

                      सर मत पीटिये!..         क्यों नहीं फले-फूलेगा ये बागेश्वर धाम,      मारे-मारे जब फिरते हैं नौजवान बे-काम!.. बागेश्वर धाम के नाम से मशहूर हो रहे 26 वर्षीय  'बाबा' धीरेन्द्र शास्त्री की बड़ी चर्चा है इन दिनों! बाबा चमत्कार पे चमत्कार किए जा रहे हैं और जनता सौ से हजार, हजार से लाख और लाख से करोड़ की संख्या में उनकी दीवानी ही रही है। कभी सोचा, ऐसा क्यों? .. और क्यों नहीं?  क्या यह पहली बार है? क्या धीरेन्द्र शास्त्री अकेले हैं इस कारोबार में? राजनीतिक बाबा क्या ज़्यादा अच्छे हैं कि आप वे जो कहते हैं, उसे मान लिया करते हैं? और जो लोग इन धार्मिक-राजनीतिक बाबाओं को नहीं मानते वे क्या कर रहे हैं? क्या आपको पता या याद है कि ये चमत्कार आदिवासी, अशिक्षित, अर्द्ध-शिक्षित इलाकों में ही ज़्यादा क्यों होता है? क्या वहाँ यह जीने का एक तरीका या मनोरंजन का एक साधन है? और यह नौकरिया-ज्ञान भी वास्तव में जीवन की कितनी और कैसी शिक्षा/सीख दे पाने में समर्थ है! चाहे राजों-महाराजों के जमाने में रहा हो, अंग्रेजों के जमाने में रहा हो या आज, नौकर-सेवक-सर्वेंट तो आज्ञा का गुलाम ही रहा है,

किसान आंदोलन के आइने में चौधरी चरणसिंह

चौधरी चरण सिंह जन्म-दिवस             उन्हें याद करने का मतलब!..                              - अशोक प्रकाश   28 जुलाई, 1979 से 14 जनवरी, 1980 तक मात्र कुछ महीने भारत के पाँचवें प्रधानमंत्री के रूप में देश की संसदीय व्यवस्था की कमान संभालने वाले चौधरी चरण सिंह को 'किसानों का मसीहा' के रूप में याद किया जाता है। सर छोटूराम के बाद किसानों के प्रबल हितैषी के रूप में पहचान बनाने वाले वे सर्वाधिक महत्वपूर्ण नेता माने जाते हैं। किसान समर्थक कानूनी सुधारकों में उन्हें विशेष स्थान प्राप्त है। पिछले साल जब से संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा चलाए गए जुझारू किसान संघर्षों के फलस्वरूप मोदी सरकार को कॉरपोरेट हितैषी तीन कृषि संबन्धी कानूनों को वापस लेना पड़ा है, चौधरी चरण सिंह को याद करना विशेष महत्त्व रखता है। चौधरी चरण सिंह का जन्म ब्रिटिश भारत में आज के पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हापुड़ जनपद के नूरपुर गाँव में 23 दिसम्बर, 1902 को हुआ था। किसानी संघर्षों में अग्रणी जाटों के वंश में पैदा हुए चौधरी चरण सिंह को किसानों की दशा-दुर्दशा की समझ विरासत में मिली थी। उनका जन्म जिस तरह 'काली मिट्टी के अनगढ़

अशांत मन की भड़ास

             एक सन्तमन के शांति-शांति उपदेश पर                           अशांत मन की भड़ास                                  -- अशोक प्रकाश यदि अन्यायी अत्याचारी किसी कमजोर पर अत्याचार करे आप शांत रहें क्योंकि वह आप पर अत्याचार नहीं कर रहा और जब वह आप पर अत्याचार करे तो दूसरे को शांत रहने का उपदेश दें क्योंकि वह उस पर अत्याचार नहीं कर रहा... झूठ और गलत है 'अन्याय और अत्याचार से  कम दोषी  नहीं होते अन्याय -अत्याचार सहने वाले...' सही और मान्य है अन्याय और अत्याचार की  आध्यात्मिक परिभाषा!.. सब ऊपर वाले की मर्ज़ी से होता है... उसी की मर्ज़ी से तो ही आखिर तोता भी बोलता है! तोताराम रहिए शांति-शांति कहिए!                             ☺️☺️☺️☺️☺️☺️

ऋषि सुनक अलग काम क्या करेंगे?..

              आर्थिक मंदी  यूक्रेन-रूस युद्ध और            ब्रिटिश पीएम लिज ट्रस का पद छोड़ना                                          -- जयप्रकाश नारायण वित्तीय पूंजी का असाध्य संकट शुरू हो चुका है । 2008 से शुरू हुई आर्थिक मंदी ने स्थायित्व ग्रहण कर लिया है । जिसका असर आर्थिक और राजनीतिक संकट के‌ रूप में दिखने लगा है।   ब्रिटेन की 46 दिनी प्रधानमंत्री का इस्तीफा इस बात की स्वीकारोक्ति है कि संकट का समाधान पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के दायरे में संभव नहीं है। स्वयं प्रधानमंत्री लिज ट्रस ने त्यागपत्र देते हुए कहा की वर्तमान स्थितियों में जिन वादों के लिए मैं चुनी गई थी उनके समाधान का रास्ता दिखाई न देने कारण मैं इस्तीफा दे रही हूं।  कम से कम ब्रितानी लोकतंत्र के प्रधानमंत्री में इतनी नैतिक शक्ति शेष है कि वह व्यवस्था जन्म कमजोरियों को स्वीकार कर सकें।  ब्रिटिश संसद में विपक्ष के नेता जेरेमी कोरबिन ने कहा कि अगर हम (पूंजीवाद) नीतिगत प्राथमिकता नहीं बदलते तो समय-समय पर आर्थिक संकट आते रहेगें । आगे उन्होंने कहा कि हमें अपनी" नीतियां कुछ लोगों के लिए नहीं बहुमत के लिए" बनानी चाहिए

जातिवाद दूर करने का एक अचूक नुस्खा

                 हे, हे लक्ष्मी के वाहन!  मुझे लगता है जातिवाद दूर करने का एक बढ़िया सूत्र अब तक लोगों को मालूम नहीं है। यह सूत्र मानने और अपनाने से कम से कम सभी जातियाँ एक ही संबोधन से जानी जाएँगी।...प्रायः हर धर्म-जाति के लोग कभी न कभी इसका इस्तेमाल कर खुश होते हैं। खासकर तब जब यह किसी और के लिए इस्तेमाल किया जा रहा हो! फिर भी इस अखिल धरा पर किसी न किसी रूप में कभी न कभी सभी इस लोकप्रिय संबोधन से नवाज़े गए हैं।        सभी प्रकार के जातिवादी लोग (पब्लिक/राजनीति में सभी जाति के लोग खुद को जातिवादी न कहकर बाकी सबको जातिवादी कहते हैं!) अगर अपनी जाति -'उल्लू का पट्ठा' लगाने लगे तो लोगों को देश की 3000 से अधिक जातियों के नाम से जानने की एक ही जाति 'उल्लू का पट्ठा' नाम से जाना जाएगा। इससे जातिवाद के खात्मे में कुछ तो मदद मिलेगी! मतलब 2999 जातियाँ खत्म हो जाएंगी।               वैसे यह 'जाति' शब्द भी 'ज' क्रियाधातु से व्युत्पन्न हुआ है जिससे 'पैदा होना'..'इस तरह पैदा हुआ' आदि का बोध होता है। उदाहरणार्थ आदमी आदमी की ही तरह पैदा होता है, सुअर या उल्

इस रात की सुबह कब?..

                      सिर्फ़   नाइंसाफ़ी नहीं,                 शासकों का अपराध है यह! हे युवाओं! हे  बेरोजगारो!.. सब कुछ अपने आप नहीं हो रहा है! किसी ईश्वर की माया से अपने आप नहीं घट रहा है! यह सब सुनियोजित है! तुम्हारी बेरोजगारी भी, निकाली और न भरी जातीं भर्तियाँ भी! परीक्षा के एक-दो दिन पहले मिलते प्रवेशपत्र भी। इधर का परिक्षाकेन्द्र उधर होना और उधर का परिक्षाकेन्द्र इधर होना भी! बसों और ट्रेनों में भुस की तरह घुसकर तुम्हारा जाना भी। ज़्यादा किराया वसूलना भी, मारपीट करना भी। कु छ भी नेचुरल नहीं, स्वाभाविक नहीं। करोड़ों की कमाई और मुनाफ़ा इसके पीछे है! सब शासकों द्वारा सुचिंतित और सोच-विचार कर सुनियोजित तरीके से क्रियान्वित किया गया!.. कब जागोगे?... कब समझोगे?... कब उठोगे?...                       ★★★★★

विद्यार्थी राजनीति बनाम शिक्षक राजनीति

                   जब कुएँ में         भाँग पड़ी हो तो... आप क्या करेंगे जब पूरे कुएँ में भाँग पड़ी हो?... नया कुआँ खोदेंगे? या पूरे कुएँ का पानी निकालेंगे?... https://www.rmpualigarh.com/ और जब तो न तो दूसरा कुआँ खोदने का आपमें साहस बचा हो, ना ही कुएँ का पूरा पानी निकालने का! तब उसी कुएँ में डुबकी लगाएँगे और सोचेंगे यही पानी ठीक है। या इसी पानी को ठीक मान लिया जाए! आज मोटे तौर पर शिक्षक और विद्यार्थी राजनीति का यही हस्र बनता जा रहा है!...यद्यपि विकल्प भी दिख रहे हैं पर वे गिने-चुने विश्वविद्यालयों- महाविद्यालयों में गिने-चुने शिक्षकों और विद्यार्थियों के बीच! यह एक विषम स्थिति है और कोई बनी-बनाई लीक या शास्त्रीय अवधारणा यहॉं काम नहीं आने वाली। तथाकथित नई शिक्षा नीति का बुलडोज़र विद्यार्थियों और शिक्षकों दोनों पर चल रहा है। पाठ्यक्रम से शिक्षा की बुनियादी सोच को ही गायब किया जा रहा है। कम्पनी-राज का सूत्र है-  'पढ़ो-लिखो इसलिए कि  मेरे नौकर बन सको... नौकर बनो इसलिए कि  मुझको मुनाफ़ा दे सको!'...  राजसत्ता पूरी बेशर्मी के साथ इस सूत्र को विद्यार्थियों के दिलो-दिमाग में घुसा रही है। ज़्