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जातिवाद दूर करने का एक अचूक नुस्खा

                 हे, हे लक्ष्मी के वाहन!  मुझे लगता है जातिवाद दूर करने का एक बढ़िया सूत्र अब तक लोगों को मालूम नहीं है। यह सूत्र मानने और अपनाने से कम से कम सभी जातियाँ एक ही संबोधन से जानी जाएँगी।...प्रायः हर धर्म-जाति के लोग कभी न कभी इसका इस्तेमाल कर खुश होते हैं। खासकर तब जब यह किसी और के लिए इस्तेमाल किया जा रहा हो! फिर भी इस अखिल धरा पर किसी न किसी रूप में कभी न कभी सभी इस लोकप्रिय संबोधन से नवाज़े गए हैं।        सभी प्रकार के जातिवादी लोग (पब्लिक/राजनीति में सभी जाति के लोग खुद को जातिवादी न कहकर बाकी सबको जातिवादी कहते हैं!) अगर अपनी जाति -'उल्लू का पट्ठा' लगाने लगे तो लोगों को देश की 3000 से अधिक जातियों के नाम से जानने की एक ही जाति 'उल्लू का पट्ठा' नाम से जाना जाएगा। इससे जातिवाद के खात्मे में कुछ तो मदद मिलेगी! मतलब 2999 जातियाँ खत्म हो जाएंगी।               वैसे यह 'जाति' शब्द भी 'ज' क्रियाधातु से व्युत्पन्न हुआ है जिससे 'पैदा होना'..'इस तरह पैदा हुआ' आदि का बोध होता है। उदाहरणार्थ आदमी आदमी की ही तरह पैदा होता है, सुअर या उल्

इस रात की सुबह कब?..

                      सिर्फ़   नाइंसाफ़ी नहीं,                 शासकों का अपराध है यह! हे युवाओं! हे  बेरोजगारो!.. सब कुछ अपने आप नहीं हो रहा है! किसी ईश्वर की माया से अपने आप नहीं घट रहा है! यह सब सुनियोजित है! तुम्हारी बेरोजगारी भी, निकाली और न भरी जातीं भर्तियाँ भी! परीक्षा के एक-दो दिन पहले मिलते प्रवेशपत्र भी। इधर का परिक्षाकेन्द्र उधर होना और उधर का परिक्षाकेन्द्र इधर होना भी! बसों और ट्रेनों में भुस की तरह घुसकर तुम्हारा जाना भी। ज़्यादा किराया वसूलना भी, मारपीट करना भी। कु छ भी नेचुरल नहीं, स्वाभाविक नहीं। करोड़ों की कमाई और मुनाफ़ा इसके पीछे है! सब शासकों द्वारा सुचिंतित और सोच-विचार कर सुनियोजित तरीके से क्रियान्वित किया गया!.. कब जागोगे?... कब समझोगे?... कब उठोगे?...                       ★★★★★

विद्यार्थी राजनीति बनाम शिक्षक राजनीति

                   जब कुएँ में         भाँग पड़ी हो तो... आप क्या करेंगे जब पूरे कुएँ में भाँग पड़ी हो?... नया कुआँ खोदेंगे? या पूरे कुएँ का पानी निकालेंगे?... https://www.rmpualigarh.com/ और जब तो न तो दूसरा कुआँ खोदने का आपमें साहस बचा हो, ना ही कुएँ का पूरा पानी निकालने का! तब उसी कुएँ में डुबकी लगाएँगे और सोचेंगे यही पानी ठीक है। या इसी पानी को ठीक मान लिया जाए! आज मोटे तौर पर शिक्षक और विद्यार्थी राजनीति का यही हस्र बनता जा रहा है!...यद्यपि विकल्प भी दिख रहे हैं पर वे गिने-चुने विश्वविद्यालयों- महाविद्यालयों में गिने-चुने शिक्षकों और विद्यार्थियों के बीच! यह एक विषम स्थिति है और कोई बनी-बनाई लीक या शास्त्रीय अवधारणा यहॉं काम नहीं आने वाली। तथाकथित नई शिक्षा नीति का बुलडोज़र विद्यार्थियों और शिक्षकों दोनों पर चल रहा है। पाठ्यक्रम से शिक्षा की बुनियादी सोच को ही गायब किया जा रहा है। कम्पनी-राज का सूत्र है-  'पढ़ो-लिखो इसलिए कि  मेरे नौकर बन सको... नौकर बनो इसलिए कि  मुझको मुनाफ़ा दे सको!'...  राजसत्ता पूरी बेशर्मी के साथ इस सूत्र को विद्यार्थियों के दिलो-दिमाग में घुसा रही है। ज़्

किसान आंदोलन भी राजनीति है क्या?

  किसान आंदोलन भी राजनीति का शिकार                      हो रहा है क्या?..      सवाल लाज़िमी है!..सवाल उठ रहा है, सवाल उठेगा भी! जब जीवन के हर पहलू को राजनीति संचालित कर रही है तो किसान आंदोलन राजनीति से अछूता कैसे रह सकता है? तो क्या किसान आंदोलन राजनीति का शिकार होगा? या यूँ कहें क्या किसान आंदोलन भी अन्ततः एक राजनीतिक स्वरूप लेगा? ऐसे सवाल आमजनता के मन में उठना स्वाभाविक है। न तो अपने किसान संगठन के आगे 'अराजनीतिक' लगाने वाले इस सवाल से बच सकते हैं और न ही किसान आंदोलन के सहारे राजनीति करने वाले ही। वे भी इससे नहीं बच सकते जो 'किसान राजनीति' कहकर किसान आंदोलन को संसदीय राजनीति से अलग कहते हैं। तो यह विचार करना जरूरी है कि आख़िर 'राजनीति' है क्या? क्या विधायक-सांसद बनना-बनाना ही राजनीति है या जनता से उगाहे जाते पैसों को वारा-न्यारा करने की नीति है 'राजनीति'?... पंजाब का चुनावी सबक:         वैसे तो किसान आंदोलन से जुड़े कई नेता पहले चुनाव लड़ चुके हैं। लेकिन संयुक्त किसान मोर्चा या एसकेएम ने पंजाब चुनाव से पहले तक संसदीय राजनीति से दूर रहने के ही संकेत द

प्राथमिक शिक्षा: नीतिकारों की नीयत

                            राष्ट्रीय  शिक्षा नीति:                 नीयत में खोट                        - वी.के. शर्मा हमारे देश में प्राथमिक शिक्षा से लेकर स्नातकोत्तर शिक्षा तक की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। ग्रामीण क्षेत्र की शिक्षा खासकर उत्तरी भारत की शिक्षा चाहे वाह प्राइमरी पाठशाला हो अथवा स्नातकोत्तर, बदहाल स्थिति में हैं। सरकारी शिक्षण संस्थान हो अथवा पब्लिक या निजी शिक्षण संस्थान, दोनों ही जगहों पर अलग-अलग तरीके से शिक्षा का बंटाधार किया किया जा रहा है। सरकारी प्रारंभिक पाठशाला हो अथवा सरकारी स्नातकोत्तर महाविद्यालय, शिक्षा का स्तर गिर रहा है।  https://www.rmpualigarh.com/fupucta-candidates/           प्राथमिक विद्यालयों ने मिड-डे मील मिलता है, जबकि शिक्षक मात्र एक और किसी-किसी स्कूल में 2 शिक्षक अथवा एक प्रधानाध्यापक और एक शिक्षामित्र तथा एक आंगनबाड़ी कार्यकर्ता या खाना बनाने वाली दाई होते हैं! यानी कुल मिलाकर महज तीन व्यक्तियों का स्टाफ होता है और 30 से 35 छात्र होते हैं। सच तो यह है कि डेढ़ सौ से 300 छात्रों को रजिस्टर्ड कर लिया जाता है और उनके लिए मिड-डे मील तथा पाठ

सच बोलिए: धर्म और मनुष्य में से किसे चुनेंगे आप?-

  बहस:                             मानवता या धर्म!                       आप कहाँ खड़े हैं?                                             - वी के शर्मा       मानवता के लिए साम्प्रदायिकता बहुत बुरी होती है। चाहे वह हिंदू सांप्रदायिकता हो अथवा मुस्लिम सांप्रदायिकता अथवा कोई और! साम्प्रदायिकता मानवता के सामने दुश्मन की तरह आ खड़ी होती है। इतिहास की यह विडम्बना रही है कि जो धर्म अहिंसक रहे हैं वे या तो खत्म कर दिए गए हैं अथवा कमजोर हो गए हैं। इसी संदर्भ में हम बौद्ध धर्म की अहिंसावादी नीति को देख-परख सकते हैं। बौद्ध धर्म अपनी अहिंसावादी नीति के कारण ही कमजोर हो चुका है। वही दुनिया के सभी आतताई और हिंसक धर्म अपने को ना केवल जिंदा रखे हुए हैं बल्कि एक खास क्षेत्र अथवा विश्व के अनेक देशों में अपना पांव भी मजबूती से टिकाए हुए हैं। लिहाजा हिंदू धर्म हो अथवा मुस्लिम धर्म किसी भी मानवतावादी को इनके पीछे खड़ा नहीं होना चाहिए। यदि कोई भी प्रगतिशील या जनवादी व्यक्ति अथवा संगठन किसी कमजोर सांप्रदायिक शक्ति के पीछे लामबंद होता है तो निश्चय ही वह मजबूत सांप्रदायिक शक्ति को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मज

क्या सचमुच बुरा बनता जा रहा है समाज?

                   बुरा बनता समाज                                कारण क्या हैं?                                                                                                         - विजय कुमार शर्मा क्या और भी बुरा बन रहा है समाज? - अक्सर ही यह सवाल आज हर व्यक्ति के मन में उठता है! अधिकांश लोगों का मन इसका एक ही उत्तर भी देता है- 'निश्चय ही!' क्यों? वही मन फिर उत्तर देता है- हमारा भारतीय समाज बदल ही नहीं रहा है बल्कि यह बहुत तेज गति से बदल रहा है। सन् 1990 के बाद समाज के बदलाव ने तेज गति पकड़ ली। यह दौर था नयी-नयी नीतियों के आगमन का, यह दौर था एलपीजी यानी लिबरलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन के आगमन का। इस दौर में केन्द्रीय सत्ता पर कांग्रेस का शासन था। इस दौर के प्रधानमंत्री थे राजीव गांधी. इन्होंने नई अर्थ नीति, नई उद्योग नीति लागू की। इसी प्रक्रिया को अगले प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई  ने परिवर्धित-परिमार्जित करके आगे बढ़ाया। आज के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी इसी प्रक्रिया को आगे बढ़ा रहे हैं। इसका प्रभाव हमारे जन-जीवन के, हमारे समाज के हर आयाम पर पड़ रहा है