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विकास_की_कहानी

                                                     'विकास' की कहानी हमारे आसपास कितना कुछ ऐसा घटित हो रहा जो नाक़ाबिले-बर्दाश्त है!...लेकिन इससे भी ज़्यादा बुरा है, किसी पीड़ित की बात न सुना जाना। कभी-कभी लगता है कि यह दुनिया बड़ी तेजी से पीछे लौट रही है। कितना पीछे, कहा नहीं जा सकता। एक भौतिकी के पीएचडी वगैरह डिग्री धारक प्रोफेसर साहब कह रहे थे कि वो डार्विन के विकास के सिद्धांत को नहीं मानते। नहीं मानते कि दुनिया क्रमशः विकसित हो रही है और पीछे नहीं लौटेगी!...वे मानते हैं कि 5000 साल पहले की दुनिया ज़्यादा विकसित थी। आप क्या कर लेंगे?...आप क्या कर सकते है जब यह मानने वाले करोड़ों में हों पृथ्वी शेषनाग के फन पर टिकी है? और भी मुश्किल तब है जब प्रोफेसर साहब सहित तमाम सारे लोग पृथ्वी और शेषनाग कथा पर विश्वास के साथ-साथ सभ्यता के विकास का आनंद उन लोगों से हजारों गुना ज़्यादा लेते हों जो यह मानते हैं कि मिथक-कथाएँ और कुछ भी हों, सभ्यता के विकास की कहानियां नहीं हैं!.. लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है। सभ्यता के विकास की पूँजीवादी अवधारणा। इस अवधारणा में शासक पूँजी यह चाहती

#Corona_Class: हिंदी निबन्ध-1

                              निबन्ध शब्द की व्याख्या और                        प्रारम्भिक (भारतेंदु युगीन) हिंदी निबन्ध 'निबन्ध' शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की मूल धातु 'बन्ध' में 'नि' उपसर्ग लगाकर दो प्रकार से मानी जाती है- 1. नि+बन्ध+ल्युट् - 'निबध्यते अस्मिन् इति अधिकरणे निबन्धम्' अर्थात् जिसमें विचार बांधा या गूंथा गया हो ऐसी रचना, 2. नि+बन्ध+घञ् - निश्चितार्थेन विषयम् अधिकृत बन्धनम् - अर्थात निश्चित तात्पर्य से विषय को विचारों की श्रृंखला में बांधना। यद्यपि 'निबन्ध' शब्द का प्रयोग बहुत पहले से होता रहा है, किन्तु वर्तमान काल में यह मुख्यतः अंग्रेजी के 'Essay' के अर्थों में प्रयुक्त होता है। आज हिंदी निबन्ध शब्द से तात्पर्य है- 'वह विचारपूर्ण लेख जिसमें किसी विषय का सम्यक विवेचन किया गया हो'(- 'बृहत् हिन्दी कोश' )। 'शब्द कल्पद्रुम' के अनुसार 'बद्धनातीति निबन्धनम्' अर्थात जिससे बन्ध जाएं वही निबन्ध है। ★'कुतार्किका ज्ञाननिवृत्तिहेतुः करिष्यते तस्यमया निबन्धः..' अर्थात कुतर्कों से ज्ञान की मुक्ति

डिज़िटल हिंदी: समस्याएँ और निदान

हिंदी का तकनीकी ज्ञान हिन्दी भाषा और साहित्य के विद्यार्थियों के लिए आवश्यक जानकारी: हिंदी में काम करने में तकनीकी सुविधाएं                                               -  क्षेत्रपाल शर्मा                                          19/17,  शांतिपुरम, सासनी गेट, आगरा रोड,                                                                             अलीगढ़, उत्तर प्रदेश   सबसे पहले हम एक भ्राति   का निवारण जरूरी समझते हैं ,  लोगों का यह कहना है देवनागरी भाषा को कंप्यूटर की भाषा के रूप में    स्वीकार किया गया है। पहले तो हम यह जान ले  कि मानवीय  भाषा और मशीन की भाषा में कोई  तादात्म्य  नहीं होता।  दूसरे यह भी समझ  लें    कि   कंप्यूटर की भाषा में  क्या  है,  केवल  देवनागरी के फार्मूला  को ही लिया गया है।  हलंत,  स्वर और व्यंजन का कॉन्बिनेशन है। संस्कृत भाषा जैसी अन्य भाषा नहीं है जिसका हर शब्द अर्थवाही है। जैसे- ग: ग से- गमन, च: च से- और आदि!  संस्कृत के फॉन्ट  devnagarifonts.net  से मिल सकते हैं ।   कंप्यूटर पर हिन्दी सक्रिय करने के लिए  राजभाषा विभाग की साइट पर हिन्दी टूल्स पर जाकर विंडोज

नरक की कहानियाँ: 2~बनो दिन में तीन बार मुर्गा!..

व्यंग्य-कथा :                       दिन में तीन बार मुर्गा बनने का आदेश:                                 और उसके फ़ायदे                                                     - अशोक प्रकाश     मुर्गा बनो जैसे ही दिन में कम से कम तीन बार मुर्गा बनने का 'अति-आवश्यक' आदेश निकला, अखबारों के शीर्षक धड़ाधड़ बदलने लगे। चूंकि इस विशिष्ट और अनिवार्य आदेश को दोपहर तीन बजे तक वाया सर्कुलेशन पारित करा लिया गया था और पांच बजे तक प्रेस-विज्ञप्ति जारी कर दी गई थी, अखबारों के पास इस समाचार को प्रमुखता से छापने का अभी भी मौका था। एक प्रमुख समाचार-पत्र के प्रमुख ने शहर के एक प्रमुख बुद्धिजीवी से संपर्क साधकर जब उनकी प्रतिक्रिया जाननी चाही, उन्होंने टका-सा जवाब दे दिया। बोले- "वाह संपादक महोदय, वाह!...आप चाहते हैं कि इस अति महत्वपूर्ण खबर पर अपना साक्षात्कार मैं यूं ही मोबाइल पर दे दूँ!....यह नहीं होगा। आपको मेरे घर चाय पीनी पड़ेगी, यहीं बातचीत होगी और हाँ, मेरे पारिश्रमिक का चेक भी लेते आइएगा ताकि साक्षात्कार मधुर-वातावरण में स

मधुशाला के मधुमिलिंद हे!

कटूक्ति:                              हे हे अति-माननीयों!... अर्थात् - हे मधुशाला के मधु-मिलिंद यानि शराब की तलाश में इस लॉकडाउन में भी निर्भय विचरण करते रहने वाले भ्रमर-बंधुओं,   शराब जिसे तुम सोमरस कहकर अलौकिक आनन्द की अनुभूति करते हो, तुम्हें मुबारक़ हो! तुम्हारी हर जगह जय है, मैं जय हो कहकर लज्जित हूँ!... आखिर ये तो बताओ, इतना दिन धीरज कैसे धारण किए रहे?...आप यत्र-तत्र-सर्वत्र हैं, हर जगह हैं। आपने पहले ही क्यों अपने दिव्य प्रभाव का इस्तेमाल कर मधुशालाएँ नहीं खुलवा लीं?...जबकि दवा की दुकानें खोलने जाते हुए भी रास्ता डंडा लेकर भयभीत करता है, आपके लिए सब कुछ सुलभ है।... हे शराब के शौकीन अति-माननीयों! पत्नियों, लड़कियों, ठेले वालों, सब्ज़ी वालों, नाली-नालों को बचाए रखना! हे संप्रभुओं, आपकी जय-जयकार हो रही है, और भी हो!...किसी गाड़ी को न चकनाचूर कर देना प्रभु! हम जानते हैं कि आप न होते तो अर्थव्यवस्था चौपट हो चुकी होती। इसीलिए आपके कुछ अति-प्रेमी लोग कहने लगे हैं- 'शराब बेचने पर भी अगर  अर्थव्यवस्था नहीं सुधरे तो,  चरस, गांजा, अफीम, हेरोइन आदि पर भी विचार करन

मई-दिवस: इससे पहले कि...

●●●● मई दिवस पर:                                 इससे पहले कि...                                                   - अशोक प्रकाश    इससे पहले कि वे जानवर जैसी ज़िंदगी के लिए मजबूर कर दें दुनिया को समझो और देखो कि इंसान कीड़ा-मकोड़ा, जानवर नहीं ज्ञान-विज्ञान के सहारे  इन पर विजय पाने वाला धरती का सबसे ताकतवर प्राणी है... इससे पहले कि उनके बनाए, बताए, समझाए भूत-प्रेत, ओझा-सोखा, भगवान विषाणु-कीटाणु-शैतान  तुम्हें निगल जाएँ सत्य का हथौड़ा उठाओ और  प्रहार करो उस अपराधी दिमाग पर जो पूँजी के हथियार से  खत्म कर देना चाहता है सारी दुनिया जिसमें इंसान भी है और विज्ञान भी  सिर्फ़ अपने लालच और मुनाफ़े की हवस के लिए.... इससे पहले कि वे तहस-नहस कर दें धरती और उसकी सारी खूबसूरती इनकार कर दो उनकी सारी शर्तें  उघाड़ दो उनके अपराध उसकी सारी परतें जान और मान लो कि बढ़ती मुसीबतों का कारण तुम खुद नहीं, तुम्हारी मेहनत नहीं उनके मन का विकार- तुम्हारे ज्ञान पर छाया अंधकार है.... इससे पहले कि वे तुम्हें फिर जाति-धर्म-क्षेत्र-देश के नाम पर बहकाएँ तुम्हारी मेहनत-मजू

विद्यार्थी, ऑनलाइन पढाई और सोशल मीडिया

                      सोशल मीडिया:               साहित्य और  सामाजिक-चेतना                                                   साहित्य और समाज का सम्बंध  चर्चा का एक पुराना विषय है! लेकिन समाज का दुर्भाग्य कहें कि साहित्य का, यह विषय आज भी जीवंत है और समाज का एक बड़ा हिस्सा साहित्य को 'मनोरंजन की चीज' से अधिक और कुछ नहीं मानता। शायद इसीलिए समाज में बहुत कम लोग हैं जो सोशल मीडिया का इस्तेमाल साहित्य अध्ययन के लिए करते हैं। ज़्यादातर के लिए तो सोशल मीडिया मनोरंजन का एक साधन भर है। इसी कारण जब कोई गंभीर साहित्यिक चर्चा होती है, अधिक लोग उससे नहीं जुड़ते। विशेषकर यूट्यूब और फेसबुक का इस्तेमाल तो गप्पों और भौंडे मनोरंजन के लिए ही अधिक होता है। लेकिन जैसे साहित्य का समाज की चेतना के लिए उपयोग होता है, वैसे ही सोशल मीडिया का भी विद्याध्ययन और सामाजिक चेतना के विकास के लिए उपयोग किया जा सकता है।                 इसे दुर्भाग्य कहें या सौभाग्य, ऑनलाइन पढाई के इस दौर में ऑफलाइन या अध्ययन-केंद्रों में जाकर अध्ययन का दायरा अब सिकुड़ता जा रहा है। उच्च अध्ययन के लिए भी लोग अब इंटरनेट पर ब्