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नरक की कहानियाँ: 2~बनो दिन में तीन बार मुर्गा!..

व्यंग्य-कथा :                       दिन में तीन बार मुर्गा बनने का आदेश:                                 और उसके फ़ायदे                                                     - अशोक प्रकाश     मुर्गा बनो जैसे ही दिन में कम से कम तीन बार मुर्गा बनने का 'अति-आवश्यक' आदेश निकला, अखबारों के शीर्षक धड़ाधड़ बदलने लगे। चूंकि इस विशिष्ट और अनिवार्य आदेश को दोपहर तीन बजे तक वाया सर्कुलेशन पारित करा लिया गया था और पांच बजे तक प्रेस-विज्ञप्ति जारी कर दी गई थी, अखबारों के पास इस समाचार को प्रमुखता से छापने का अभी भी मौका था। एक प्रमुख समाचार-पत्र के प्रमुख ने शहर के एक प्रमुख बुद्धिजीवी से संपर्क साधकर जब उनकी प्रतिक्रिया जाननी चाही, उन्होंने टका-सा जवाब दे दिया। बोले- "वाह संपादक महोदय, वाह!...आप चाहते हैं कि इस अति महत्वपूर्ण खबर पर अपना साक्षात्कार मैं यूं ही मोबाइल पर दे दूँ!....यह नहीं होगा। आपको मेरे घर चाय पीनी पड़ेगी, यहीं बातचीत होगी और हाँ, मेरे पारिश्रमिक का चेक भी लेते आइएगा ताकि साक्षात्कार मधुर-वातावरण में स

मधुशाला के मधुमिलिंद हे!

कटूक्ति:                              हे हे अति-माननीयों!... अर्थात् - हे मधुशाला के मधु-मिलिंद यानि शराब की तलाश में इस लॉकडाउन में भी निर्भय विचरण करते रहने वाले भ्रमर-बंधुओं,   शराब जिसे तुम सोमरस कहकर अलौकिक आनन्द की अनुभूति करते हो, तुम्हें मुबारक़ हो! तुम्हारी हर जगह जय है, मैं जय हो कहकर लज्जित हूँ!... आखिर ये तो बताओ, इतना दिन धीरज कैसे धारण किए रहे?...आप यत्र-तत्र-सर्वत्र हैं, हर जगह हैं। आपने पहले ही क्यों अपने दिव्य प्रभाव का इस्तेमाल कर मधुशालाएँ नहीं खुलवा लीं?...जबकि दवा की दुकानें खोलने जाते हुए भी रास्ता डंडा लेकर भयभीत करता है, आपके लिए सब कुछ सुलभ है।... हे शराब के शौकीन अति-माननीयों! पत्नियों, लड़कियों, ठेले वालों, सब्ज़ी वालों, नाली-नालों को बचाए रखना! हे संप्रभुओं, आपकी जय-जयकार हो रही है, और भी हो!...किसी गाड़ी को न चकनाचूर कर देना प्रभु! हम जानते हैं कि आप न होते तो अर्थव्यवस्था चौपट हो चुकी होती। इसीलिए आपके कुछ अति-प्रेमी लोग कहने लगे हैं- 'शराब बेचने पर भी अगर  अर्थव्यवस्था नहीं सुधरे तो,  चरस, गांजा, अफीम, हेरोइन आदि पर भी विचार करन

मई-दिवस: इससे पहले कि...

●●●● मई दिवस पर:                                 इससे पहले कि...                                                   - अशोक प्रकाश    इससे पहले कि वे जानवर जैसी ज़िंदगी के लिए मजबूर कर दें दुनिया को समझो और देखो कि इंसान कीड़ा-मकोड़ा, जानवर नहीं ज्ञान-विज्ञान के सहारे  इन पर विजय पाने वाला धरती का सबसे ताकतवर प्राणी है... इससे पहले कि उनके बनाए, बताए, समझाए भूत-प्रेत, ओझा-सोखा, भगवान विषाणु-कीटाणु-शैतान  तुम्हें निगल जाएँ सत्य का हथौड़ा उठाओ और  प्रहार करो उस अपराधी दिमाग पर जो पूँजी के हथियार से  खत्म कर देना चाहता है सारी दुनिया जिसमें इंसान भी है और विज्ञान भी  सिर्फ़ अपने लालच और मुनाफ़े की हवस के लिए.... इससे पहले कि वे तहस-नहस कर दें धरती और उसकी सारी खूबसूरती इनकार कर दो उनकी सारी शर्तें  उघाड़ दो उनके अपराध उसकी सारी परतें जान और मान लो कि बढ़ती मुसीबतों का कारण तुम खुद नहीं, तुम्हारी मेहनत नहीं उनके मन का विकार- तुम्हारे ज्ञान पर छाया अंधकार है.... इससे पहले कि वे तुम्हें फिर जाति-धर्म-क्षेत्र-देश के नाम पर बहकाएँ तुम्हारी मेहनत-मजू

विद्यार्थी, ऑनलाइन पढाई और सोशल मीडिया

                      सोशल मीडिया:               साहित्य और  सामाजिक-चेतना                                                   साहित्य और समाज का सम्बंध  चर्चा का एक पुराना विषय है! लेकिन समाज का दुर्भाग्य कहें कि साहित्य का, यह विषय आज भी जीवंत है और समाज का एक बड़ा हिस्सा साहित्य को 'मनोरंजन की चीज' से अधिक और कुछ नहीं मानता। शायद इसीलिए समाज में बहुत कम लोग हैं जो सोशल मीडिया का इस्तेमाल साहित्य अध्ययन के लिए करते हैं। ज़्यादातर के लिए तो सोशल मीडिया मनोरंजन का एक साधन भर है। इसी कारण जब कोई गंभीर साहित्यिक चर्चा होती है, अधिक लोग उससे नहीं जुड़ते। विशेषकर यूट्यूब और फेसबुक का इस्तेमाल तो गप्पों और भौंडे मनोरंजन के लिए ही अधिक होता है। लेकिन जैसे साहित्य का समाज की चेतना के लिए उपयोग होता है, वैसे ही सोशल मीडिया का भी विद्याध्ययन और सामाजिक चेतना के विकास के लिए उपयोग किया जा सकता है।                 इसे दुर्भाग्य कहें या सौभाग्य, ऑनलाइन पढाई के इस दौर में ऑफलाइन या अध्ययन-केंद्रों में जाकर अध्ययन का दायरा अब सिकुड़ता जा रहा है। उच्च अध्ययन के लिए भी लोग अब इंटरनेट पर ब्

डॉ._अम्बेडकर और #राहुल_सांकृत्यायन

                 डॉ. भीमराव अम्बेडकर,     राहुल सांकृत्यायन  और बौद्धधम्म                                                           - अशोक प्रकाश            14 अप्रैल देश की जनता और बुद्धिजीवियों के लिए एक खास तारीख है। देश के दो प्रखर बुद्धिजीवियों के स्मरण का यह एक विशेष दिन है!...इस दिन जहाँ 'संविधान_निर्माता' माने जाने वाले डॉ. भीमराव आंबेडकर की जयंती पड़ती है, वहीं देश के अप्रतिम साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन की निधन-तिथि!... राजनीतिक गलियारों ने डॉ. भीमराव अम्बेडकर के नाम को आत्मसात कर लिया है!..देश भर में #अम्बेडकर_जयंती के अवसर पर आज उनकी वन्दना, पूजा की जाती है... इसके लिए रैलियां निकाली जाती हैं। वर्णवादी उत्पीड़न-अत्याचार को जातिवादी स्वरूप  देकर डॉ. अम्बेडकर को भुनाने का काम उनके समर्थक और अनुयायी ही नहीं, उनके वैचारिक-राजनीतिक विरोधी भी कर रहे हैं! दोनों के निष्कर्षों में आज कोई विशेष अंतर भी नहीं रह गया है। डॉ. अम्बेडकर ने जिस तबके के शोषण-उत्पीड़न को समाप्त करने के लिए आजीवन संघर्ष किया, आज वह वोटबैंक बनकर चकरघिन्नी बना हुआ है!... आज भी डॉ. #अम्बेडकर

#कोरोना_टाइम्स: लोग ही इतिहास बनाते हैं..

                                    वे फिर हारेंगे!...                                                 - अशोक प्रकाश ऐसा लगता है जैसे हम किसी दूसरी दुनिया में आ गए हों!..लगता है जैसे यह हमारी वह दुनिया नहीं जिस पर एक मनुष्य के रूप में हमें सुकून महसूस होता था!... लगता था कि ये हवा, ये फूल और उनकी खुशबू, ये नदियां, पहाड़, बाग-बगीचे, आसमान और चांद, ये मिट्टी और उसकी सुगन्ध...पूरी की पूरी क़ायनात पर हमारा भी हक़ है!... न जाने कितने समय से यह धरती हमें अपने आगोश में छुपाए रही है, सहारा देती रही है, तभी तो हमारा अस्तित्व बचा है अभी तक इस पर!...और अब? लगता है जैसे हम गए!... लेकिन नहीं!...शायद यह हमारा भ्रम है, भ्रम था। एक पल भी संघर्षों के बिना हम इस धरती पर टिके नहीं रह सकते थे। धरती तो एक जीवनदायिनी शक्ति रही है हमारे अस्तित्व की।   ...जीने का एक सहारा, एक संसाधन! वह  अपने आप न तो हमें जीवन दे सकती थी, न ले सकती थी! इस धरती और हमारे बीच के द्वंद्वात्मकता सम्बन्ध ही हैं जिन्होंने हमें बनाया-बढाया, इस धरती को भी और सुंदर बनाया।  हम मनुष्य ही हैं जिन्होंने  अपनी जरूरतों

कोरोना_टाइम्स: जिंदगी दुश्वार होती जा रही...

                    एक ग़ज़ल                               - अखिलेश कुमार शर्मा जिंदगी  दुश्वार  होती  जा  रही। हर  दवा  बेकार  होती जा रही। भेड़िये का काम मुश्किल कर रही भेड़  भी   गद्दार  होती  जा  रही । भाग जाती है झटक कर हाथ ही तू  तो अब सरकार होती जा रही। मछलियों ने जाल खुद ही चुन लिए योजना  साकार   होती   जा  रही । अबतो पैसों की खनक सुनती है बस जानेमन  अखबार   होती  जा  रही ।।                               -  फेसबुक से साभार                       ★★★★